हमलोग सोचते हैं कि हमारे पास पैसा न होनेसे हम पराधीन
हैं । यदि रुपये हो जायँ तो हम स्वाधीन हो जायँ । क्योंकि बिना रुपयोंके जिस चीजको
हम खरीदना चाहते हैं, खरीद नहीं सकते । यदि रुपया हो जाय तो हम जो कोई भी चीज खरीदना
चाहें तो खरीद लें । परन्तु इसे ठीक प्रकारसे समझना है । यदि आप रुपयोंसे चीज खरीद
लेते हैं तो आप स्वाधीन कहाँ हुए ? आप रुपयोंके आधीन हुए । रुपये ‘पर’ हैं ‘स्व’ नहीं,
अतः पराधीन हुए । रुपयोंके आधीन रहकर आपको
स्वाधीनताका अनुभव होता है, यह गलती है । जैसे रुपयोंके अभावमें पराधीनता
है, ऐसे ही रुपयोंके रहते हुए भी पराधीनता है । पहले रुपये नहीं
थे वह दुःख था । अब रुपये खर्च हो जायँगे; यह दुःख है । फर्क
इतना ही है कि रुपयोंके न रहनेपर पराधीनताका अनुभव होता है, परन्तु
रुपयोंके आनेपर ऐसी अंधेरी आती है कि पराधीनताका अनुभव नहीं होता । जिसको पराधीनताका अनुभव होता है, वह पराधीनतासे रहित अर्थात् स्वाधीन हो सकता है
। पर जो पराधीन हो और पराधीनताका अनुभव न करता हो, वह स्वाधीन
नहीं हो सकता । जबतक आपको प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले
प्राकृत पदार्थोंकी चाहना है तबतक आप बिलकुल पराधीन हैं । क्योंकि ये प्राकृत पदार्थ
रुपया, धन, शरीर आदि आने-जानेवाले उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । परन्तु आप रहनेवाले हैं । आप शरीरके
उत्पन्न होनेसे पहले भी थे, अब भी हैं और शरीर नष्ट होनेपर भी
रहेंगे । अतः यदि आप शरीर, इन्द्रियों, अन्तःकरण आदिके आधीन नहीं होंगे तभी आप स्वाधीन होंगे । इनके आधीन होना तो
पराधीन होना है । परमात्मा ‘स्व’ है । आप
और परमात्मा दोनों रहनेवाले हैं । यदि आप परमात्माके आधीन
हो जायँ, उनकी शरण हो जायँ तो
स्वाधीन हो जायँगे । क्योंकि परमात्मा ‘स्व’ हैं, अपने हैं । यदि हम प्रभुकी शरण हो जायँ, उनके परायण हो जायँ तो
वे कहते हैं‒
‘मैं भगतन को दास भगत मेरे मुकुट मणि’
भगवान् आपको मालिक बना लेते हैं । अर्जुन भगवान्को कहते हैं कि मेरे
रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये‒
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथ स्थापय
मेऽद्युत ॥
(गीता १ ।
२१)
भगवान् उसकी आज्ञाका पालन करते है ।
आप भगवान्के आधीन हो जाते हैं । परन्तु ये रुपये-पैसे जिनके लिये
आप झूठ, कपट, बेईमानी, जालसाजी सब कुछ करते हैं, वे जाते समय आपसे पूछेंगे नहीं
कि हम जा रहे हैं । चुपके-से खिसक जायँगे । कोई लिहाज नहीं करेंगे ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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