(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसी प्रकार यह शरीर जिसे आप ‘मेरा’ और कभी ‘मैं’ भी कह देते हैं, वर्षोंतक अन्न, जल, वस्त्र आदि दिया, परन्तु एक
या दो दिन भी अन्न-जल न दें तो पोल निकाल देगा । काम करना बन्द
कर देगा । यह लिहाज नहीं करेगा कि वर्षोंतक अन्न, जल दिया,
अब दो दिन नहीं दिया तो कोई बात नहीं । यह इतना कृतघ्न है । आप इसकी गुलामी करते हो;
परन्तु यह आपकी गुलामी नहीं करता । यह अपना नहीं है । इसे आप अपना मान
लेते हैं‒यह धोखा है । इसपर आपका आधिपत्य नहीं है । अगर
आपका आधिपत्य हो तो इसे कमजोरीसे बचा लो । बूढ़ा मत होने दो, बीमार
मत होने दो और कम-से-कम मरने मत दो । आप
ये कर सकते हो क्या ? यदि नहीं, तो इसे अपना मानना गलती है ।
यह शरीर अपना इस बातमें है कि इससे आपको जो लाभ लेना हो,
ले लो । इससे अपना उद्धार, अपना कल्याण कर सकते हो । उद्धार होगा शरीरकी अहंता-ममताके त्यागसे । संसारकी सभी वस्तुएँ केवल त्यागके
लिये, दूसरोंकी सेवाके लिये
मिली हैं, अपने लिये नहीं । अगर इस बातको मान लें तो महान् शान्ति मिलेगी । ऐसा माननेसे
मरनेका भय मिट जायगा और तृष्णा तथा कामना मिट जायगी । कामनाके मिटनेपर दरिद्रता सर्वथा
मिट जायगी । परन्तु इन चीजोंको लेते रहोगे तो दरिद्रता बढ़ेगी ।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।
ज्यों-ज्यों वस्तु अधिक होगी, त्यों-त्यों अभाव अधिक होगा । यह बात बड़ी पक्की,
सच्ची तथा शास्त्रीय सिद्धान्तकी है । स्थूलरीतिसे भी मनुष्योंको मैंने
देखा है कि जब धन कम था, सत्संगमें आते थे । भजन साधन करते थे और कहते थे कि ये धनी
आदमी सत्संगमें क्यों नहीं आते । हमारे तो पैसेकी कमी है, खानेको
पूरी रोटी नहीं है, फिर भी सत्संगमें आनेका मन रहता है । परन्तु
जब उन लोगोंके धन हो गया तो वे भी अब सत्संगमें नहीं आते । यदि उनसे कोई कहे कि सत्संगमें
चलो तो कहते है कि इतना काम-धंधा है कि जा नहीं सकते । दूसरे
धनवानोंको जो कहते थे, वही दशा उनकी हो गयी । ऐसा हमने देखा है । दूसरी बात है कि पैसा
होनेपर आसुरी सम्पदाका लक्षण अभिमान आ जाता है । अभिमानीके
प्रति किसीको दया नहीं आती । गरीबके प्रति दूसरोंको दया आ जाती है । धनी व्यक्तिके
नौकर भी आपसमें बात करते हैं कि सेठके पास पैसे बहुत हो गये, पर अकल नहीं है । उसका
मुँह न देखें, पर क्या करें, पैदा
(आमदनी) नहीं है; इस कारण इसके यहाँ नौकरी करनी
पड़ती है । नौकर उससे घृणा करते हैं । आप स्वतन्त्र तब हो सकते हैं, जब रुपयोंकी गुलामी न रहे । लाखों, करोड़ों रुपये आपके
पास हैं, पर रुपयोंकी गर्मी आपके भीतर न हो, रुपयोंके कारण आपमें अभिमान न हो, तब आप स्वतन्त्र हैं,
स्वाधीन हैं । परंतु रुपयोंके रहनेसे स्वाधीन मानना बिलकुल गलती है ।
परंतु क्या बतावें ? किसको कहें ? कैसे
समझावें ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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