।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
पराधीनता और स्वाधीनता


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसी प्रकार यह शरीर जिसे आप ‘मेरा’ और कभी मैंभी कह देते हैं, वर्षोंतक अन्न, जल, वस्त्र आदि दिया, परन्तु एक या दो दिन भी अन्न-जल न दें तो पोल निकाल देगा । काम करना बन्द कर देगा । यह लिहाज नहीं करेगा कि वर्षोंतक अन्न, जल दिया, अब दो दिन नहीं दिया तो कोई बात नहीं । यह इतना कृतघ्न है । आप इसकी गुलामी करते हो; परन्तु यह आपकी गुलामी नहीं करता । यह अपना नहीं है । इसे आप अपना मान लेते हैं‒यह धोखा है । इसपर आपका आधिपत्य नहीं है । अगर आपका आधिपत्य हो तो इसे कमजोरीसे बचा लो । बूढ़ा मत होने दो, बीमार मत होने दो और कम-से-कम मरने मत दो । आप ये कर सकते हो क्या ? यदि नहीं, तो इसे अपना मानना गलती है ।

यह शरीर अपना इस बातमें है कि इससे आपको जो लाभ लेना हो, ले लो । इससे अपना उद्धार, अपना कल्याण कर सकते हो । उद्धार होगा शरीरकी अहंता-ममताके त्यागसे । संसारकी सभी वस्तुएँ केवल त्यागके लिये, दूसरोंकी सेवाके लिये मिली हैं, अपने लिये नहीं । अगर इस बातको मान लें तो महान् शान्ति मिलेगी । ऐसा माननेसे मरनेका भय मिट जायगा और तृष्णा तथा कामना मिट जायगी । कामनाके मिटनेपर दरिद्रता सर्वथा मिट जायगी । परन्तु इन चीजोंको लेते रहोगे तो दरिद्रता बढ़ेगी ।

जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।

ज्यों-ज्यों वस्तु अधिक होगी, त्यों-त्यों अभाव अधिक होगा । यह बात बड़ी पक्की, सच्ची तथा शास्त्रीय सिद्धान्तकी है । स्थूलरीतिसे भी मनुष्योंको मैंने देखा है कि जब धन कम था, सत्संगमें आते थे । भजन साधन करते थे और कहते थे कि ये धनी आदमी सत्संगमें क्यों नहीं आते । हमारे तो पैसेकी कमी है, खानेको पूरी रोटी नहीं है, फिर भी सत्संगमें आनेका मन रहता है । परन्तु जब उन लोगोंके धन हो गया तो वे भी अब सत्संगमें नहीं आते । यदि उनसे कोई कहे कि सत्संगमें चलो तो कहते है कि इतना काम-धंधा है कि जा नहीं सकते । दूसरे धनवानोंको जो कहते थे, वही दशा उनकी हो गयी । ऐसा हमने देखा है । दूसरी बात है कि पैसा होनेपर आसुरी सम्पदाका लक्षण अभिमान आ जाता है । अभिमानीके प्रति किसीको दया नहीं आती । गरीबके प्रति दूसरोंको दया आ जाती है । धनी व्यक्तिके नौकर भी आपसमें बात करते हैं कि सेठके पास पैसे बहुत हो गये, पर अकल नहीं है । उसका मुँह न देखें, पर क्या करें, पैदा (आमदनी) नहीं है; इस कारण इसके यहाँ नौकरी करनी पड़ती है । नौकर उससे घृणा करते हैं । आप स्वतन्त्र तब हो सकते हैं, जब रुपयोंकी गुलामी न रहे । लाखों, करोड़ों रुपये आपके पास हैं, पर रुपयोंकी गर्मी आपके भीतर न हो, रुपयोंके कारण आपमें अभिमान न हो, तब आप स्वतन्त्र हैं, स्वाधीन हैं । परंतु रुपयोंके रहनेसे स्वाधीन मानना बिलकुल गलती है । परंतु क्या बतावें ? किसको कहें ? कैसे समझावें ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे