(गत ब्लॉगसे आगेका)
वृक्ष दीखते हुए भी बीज ही हैं‒ऐसा जो जानते हैं, वे वृक्षको ठीक जानते हैं । जो बीजको न देखकर केवल वृक्षको देखते
हैं, वे वृक्षके तत्त्वको नहीं जानते, क्योंकि
वे तो वृक्षकी टहनियाँ हैं, पत्ते हैं, फूल हैं, इनमें लुब्ध
हो जाते हैं, ऐसे मनुष्योंको भगवान्ने
‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’ (गीता २ । ४२) और ‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’
( गीता १५ । १) वचन कहे हैं । इसी तरहसे
भगवान् यहाँ ‘बीजं मां सर्वभूतानाम्’ कहकर सबको यह
याद कराते हैं कि तुम्हारेको जितना यह संसार दीखता है, इसके पहले केवल मैं ही था ‘एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेयम्’‒एक मैं ही प्रजारूपसे प्रकट हो गया हूँ और इसके समाप्त
होनेपर मैं ही रह जाता हूँ अर्थात् पहले मैं ही था और पीछे मैं ही रहता हूँ, बीचमें भी मैं ही हूँ ।
जैसे बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है, बीज ही वृक्षरूपसे दीखता है, पर बीज नहीं दीखता । इसी तरहसे यह संसार
पांचभौतिक दीखता है । जो विचार करते हैं, उनको भी पांचभौतिक दीखता
है, नहीं तो पांचभौतिक भी नहीं दीखता । जैसे कोई कह दे कि ये अपने शरीर सब-के-सब पार्थिव शरीर है‒ये शरीर पृथ्वीसे पैदा होनेवाले हैं; क्योंकि इनमें मिट्टीकी प्रधानता है,
दूसरा कोई कहेगा कि ये मिट्टी कैसे हैं ? मिट्टीसे
तो हाथ धोते हैं, इस वास्ते ये शरीर मिट्टी नहीं हैं । शरीर मिट्टीका
होते हुए भी जरा भी मिट्टीका नहीं दीखता; परन्तु यह जितना संसार
दीखता है, इसको जलाकर राख कर दिया जाय तो अन्तमें एक चीज हो जाती है ।
इन शरीरोंके मूलमें क्या है ? माँ-बापसे यह शरीर पैदा होता है । माँ-बापके रज-वीर्यसे शरीर बनता है । वह अन्न-अंशसे पैदा होता है, अन्न मिट्टीसे पैदा होता है, इस
प्रकार यह शरीर मिट्टीसे पैदा होता है और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाता है । इसको
जलानेपर राख हो जायगा, गाड़ दे तो मिट्टी हो जायगा या पशु-पक्षी खा जायँगे तो भी विष्ठा बनकर मिट्टी हो जायगा‒ये तीन गतियाँ ही होती हैं । इस तरहसे शरीर अन्तमें मिट्टी
हो जाता है । पहले भी मिट्टी था, परन्तु यह शरीर-संसार देखनेसे मिट्टी नहीं
दीखता । विचार करनेसे यह मिट्टी दीखता है, आँखोंसे नहीं दीखता । इसी तरहसे यह संसार
परमात्माका स्वरूप नहीं दीखता । विचार करनेसे पता लगता है कि भगवान्ने यह संसार रचा तो कहीं और जगहसे कोई सामान नहीं मँगवाया । कहींसे कोई बिल्टी
नहीं आयी, जिससे कि यह संसार बनाया हो । बनानेवाला भी दूसरा नहीं
हुआ । आप स्वयं संसार बनानेवाले और आप ही स्वयं संसार बन
गये । शरीरोंकी रचना करके आप स्वयं उनमें प्रवेश हो गये । इन शरीरोंमें जीवरूपसे वे
परमात्मा ही हैं, यह संसार परमात्माका
स्वरूप ही है ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्
।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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