(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘यह सब संसार परमात्म-तत्त्व है’‒पहले हम इस बातको शास्त्रोंसे समझकर मान लें, अगाड़ी परमात्मा दीखने लग जायँगे । गीताने इसीको ज्ञान कहा है ।
ठीक तत्त्वसे जान लेनेपर अनुभव हो जाता है । संसार दीखता है, पर वास्तवमें यह है परमात्मा ही । ऐसा बोध होनेपर वह महात्मा कहलाता है । जिसकी
दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव हैं वह महात्मा दुर्लभ है‒‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः
॥’ (गीता ७ । १९) । अब कोई कहे कि हम पहले कैसे मान लें
जबतक हमारेको बिलकुल शरीर मिट्टी, मकान आदि अलग-अलग चीजें दीखती हैं ? इसको ऐसे मानें कि आदि-अन्तमें जो रहेगा, वही मध्यमें होगा और बीचमें भी वही
चीज होगी । ऐसे ही संसारके आदिमें परमात्मा थे, अन्तमें परमात्मा
रहेंगे, बीचमें संसाररूपसे परमात्मा ही दीख रहे हैं । तत्त्वसे
देखा जाय तो परमात्माके सिवाय और क्या है ? इस संसारके स्वाँगमें आनेसे परमात्मा असली
रूपमें नहीं दीखते, संसाररूप स्वाँग दीखता है ।
ध्यान देनेकी एक विचित्र बात यह है कि परमात्मा नित्य-निरन्तर रहते हैं, कभी बदलते नहीं, कभी मिटते नहीं; परन्तु संसार कभी एक रूपसे नहीं रहता । जिस दिन शरीर जन्मे, उस दिन ऐसे नहीं थे । जन्मके पाँच-दस दिनके बाद शरीरको
देखा हो, दो-चार वर्षके बाद देखा हो और
आज देखे तो पहचान नहीं सकते, इतना बदल जाता है । वह प्रत्येक
वर्षमें बदलता है प्रत्येक महीनेमें बदलता है, प्रत्येक घण्टेमें,
प्रत्येक मिनटमें, प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है
। बदलने-बदलनेका नाम ही शरीर है । संसार और कुछ नहीं है, यह बदले
बिना रहता ही नहीं, परमात्मा कभी बदलते ही नहीं । यह प्रश्न है
कि परमात्मा होते हुए दीखते क्यों नहीं ? वास्तवमें
जिस (संसार)-को
‘है’ मानते हैं वह परमात्मा ही है, पर संसार ‘है’ रूपसे दीखता
है ।
जासु सत्यता तें जड़ माया
।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
जिस (परमात्मा)-की सत्यतासे
संसार सत्यकी तरह दीखता है । मूढ़ताकी सहायतासे यह सच्चा दीखता है, मूढ़ता चली जाय तो
यह सच्चा नहीं दीखेगा, प्रत्युत परमात्मा ही सच्चे दीखेंगे ।
इस संसारमें ‘है’ रूपसे परमात्मा सच्चे हैं, संसार सच्चा नहीं
है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष बदलता है जन्मता-मरता है । यह प्रत्यक्ष बात है । यह बदलता हुआ दीखनेपर
भी है वही परमात्मा । ऐसा विश्वास करके भजन-स्मरण करनेसे, जप-ध्यान करनेसे,
परमात्माकी तरफ सम्मुख हो जानेसे, अन्तमें वे परमात्मा
ही रह जाते हैं । परमात्माको ठीक जाननेवाले ही तत्त्वज्ञ
जीवन्मुक्त हैं जो कि परमात्मतत्त्वको जान लेते हैं । इस
वास्ते ऐसा मानकर भगवान्के
भजनमें निरन्तर लग जाना चाहिये । यह सार बात है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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