(गत ब्लॉगसे आगेका)
मानी हुई परिच्छिन्नता मिटानेके लिये
साधक ऐसा मान ले कि ‘मैं भगवान्का हूँ’ अथवा विवेकपूर्वक यह मान ले कि
माना हुआ ‘मैं’ अर्थात् असत् मेरा स्वरूप
नहीं है । स्वरूपके प्रकाशमें मन-बुद्धिके समान ‘मैं’ पन भी प्रकाशित होता है । गहरा विचार किया जाय तो ज्ञान (बोध) वस्तुतः असत्का ही होता है,
सत्का नहीं । ‘मैं हूँ’‒इस प्रकार अपनी सत्ताका
ज्ञान तो रहता ही है और इसमें किसीको सन्देह नहीं होता । परन्तु अपनी सत्तामें जो असत्को मिलाया हुआ है, उस असत्का ज्ञान
हमें नहीं होता । यह सिद्धान्त है कि असत्का ज्ञान असत्से अलग होनेपर
होता है और सत्का ज्ञान सत्से अभिन्न
होनेपर होता है; क्योंकि वास्तवमें हम असत्से भिन्न और सत्से अभिन्न है । अतएव जिस क्षण असत्का ज्ञान होता है, उसी क्षण असत्की निवृत्ति हो जाती है अर्थात् असत्से अपनी भिन्नताका बोध हो जाता है । असत्से भिन्नताका
बोध होते ही सत्में हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है, करनी नहीं पड़ती । वह सत् ही जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंको,
उनके परिवर्तनको और उनके अभावको जानता है । जाग्रत्में स्वप्न और सुषुप्तिका अभाव, स्वप्नमें जाग्रत् और
सुषुप्तिका अभाव तथा सुषुप्तिमें जाग्रत् और स्वप्नका अभाव होता है । पर अपना अभाव
कभी नहीं होता । सब अवस्थाओंमें अपना भाव अर्थात् अपनी सत्ता
ज्यों-की-त्यों रहती है‒यह सबका अनुभव है । साधकको चाहिये कि वह अपने अनुभवको महत्त्व
दे अर्थात् अपने स्वरूपमें अटल भावसे स्थित रहे ।
आवत हर्ष न ऊपजै जावत सोक
न होय ।
ऐसी रहनी जो रहै घर में जोगी होय ॥
इस जग की कोई वस्तु न हमें सुहाती
।
पल-पलमें श्यामल
मूर्ति स्मरण है आती ॥
उगा सो ही आथवें फूला सो कुम्हलाय ।
चिण्या देवल ढह पड़े जाया सो मर जाय
॥
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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