हम यह तो कहते है कि मन मेरा है, बुद्धि मेरी है,
इन्द्रियाँ मेरी है, प्राण मेरे हैं; पर यह नहीं
कहते कि मैं मन हूँ, मैं बुद्धि हूँ, मैं
इन्द्रियाँ हूँ, मैं प्राण हूँ । इससे यह सिद्ध हुआ कि
‘मैं’-पन ‘मेरा’पनसे अलग है अर्थात् मेरे कहलानेवाले
पदार्थोंसे मैं अलग हूँ । विचार करें तो मेरे कहलानेवाले पदार्थ भी वास्तवमें मेरे
नहीं है, अपितु प्रकृतिके है । स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरके साथ तादात्म्य करनेके कारण
ही ये मेरे प्रतीत होते हैं ।
अपना स्वरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों ही शरीरोंसे अलग
है । अतः स्वरूपमें इन शरीरोंकी जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों ही अवस्थाएँ नहीं
हैं । अवस्थाएँ बदलती है और स्वरूप नहीं बदलता । स्वरूप इन अवस्थाओंको जाननेवाला है;
अतः इनसे अलग है । यदि इन अवस्थाओंको जाननेवाला अवस्थाओंसे अलग न होता
तो इन तीनों अवस्थाओंकी गणना कौन करता ? और इनके बदलनेको कौन देखता ? अवस्थाएँ तीन है और ये बदलती है‒इसमें किसीको भी संदेह नहीं । तात्पर्य यह
निकला कि अपना स्वरूप अवस्थाओंसे अलग है ।
हम सबका यह अनुभव है कि अवस्थाएँ हमारे बिना नहीं रह सकतीं,
पर हम अवस्थाओंके बिना रह सकते है और रहते भी हैं । जब जाग्रत्से स्वप्न-अवस्थामें जाते है, तब उस (जाग्रत्
और स्वप्नकी) सन्धिमें कोई अवस्था नहीं होती । इसी प्रकार स्वप्नसे
सुषुप्ति-अवस्थामें जाते है, तब उस सन्धिमें
कोई अवस्था नहीं होती । परंतु उनकी सन्धिमें कोई अवस्था न होनेपर भी हम रहते हैं ।
स्वप्न-अवस्था चली गयी और जाग्रत्-अवस्था
आ गयी, सुषुप्ति-अवस्था चली गयी और जाग्रत्-अवस्था आ गयी‒इस प्रकार अवस्थाओंके बदलनेको हम जानते
हैं । इससे सिद्ध हुआ कि हम अवस्थाओंसे अतीत हैं ।
‘मैं’ शब्दके दो अर्थ
है‒एक सत्तारूप वास्तविक ‘मैं’ और दूसरा माना हुआ ‘मैं’
। वास्तविक ‘मैं’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है पर माना हुआ ‘मैं’ किसी भी समय एक नहीं रहता, अपितु बदलता रहता है; जैसे‒मैं जागता हूँ,
मैं सोता हूँ, मैं धनी हूँ, मैं निर्धन हूँ, मैं विद्वान् हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं साधु हूँ, मैं
गृहस्थ हूँ इत्यादि । यह माना हुआ ‘मैं’ परस्पर विरुद्ध मान्यता भी करता है;
जैसे‒पिताके सामने ‘मैं’ पुत्र हूँ और पुत्रके सामने ‘मैं’ पिता हूँ । अतः यह माना हुआ ‘मैं’ हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं है । इस ‘मैं’ को पकड़नेसे ही हम परिच्छिन्न होते है; क्योंकि जिसके साथ हम ‘मैं’ मानते
है, वह परिच्छिन्न (एकदेशीय) है । अपनी वास्तविक सत्तामें परिच्छिन्नता नहीं है
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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