निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति
॥
(गीता २ ।
७१)
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः
क्षमी ॥
(गीता १२ ।
१३)
अहंकार बलं दर्पं
कामं क्रोध परिग्रहम्
।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय
कल्पते ॥
(गीता १८ ।
५३)
इन श्लोकोंमें भगवान्ने अहंता-ममता अर्थात्
मैं और मेरेपनसे रहित होनेकी बात कही है । इससे सिद्ध होता है कि अहंता-ममताका त्याग हो सकता है । अगर यह बात सम्भव न होती तो भगवान् यह बात न कहते
। भगवान्ने कहा है तो इसका अर्थ है कि इनका त्याग अवश्य हो सकता है । त्याग उसीका हो
सकता है जो वास्तवमें नहीं होता । वास्तविकका त्याग नहीं होता । जैसे यदि अग्निसे उष्णता या प्रकाशका त्याग करावें, तो
कैसे त्याग करे ? सूर्य अपने प्रकाश या गर्मीका त्याग कैसे करें
? अहंता-ममता हमने बनायी है । इसको सन्तोंने माया कहा है । भगवान्
रामने भी पंचवटीमें यही कहा है‒
मैं अरु मोर
तोर
तैं माया ।
जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥
मैं और मेरा, तू और तेरा यह माया है । इस मायामें ही
संसार फँसा हुआ है । मायाका त्याग किया जा सकता है । अब विचार
करना है कि मैं और मेरे-पनका
त्याग कैसे हो ? पहले यह बात जँच जानी चाहिये कि इसका त्याग हो
सकता है । दूसरी बात यह है कि यह ‘मैं-पन’ माना हुआ है, स्वयंका बनाया हुआ है । इस शरीरसे पहले ‘मैं-पन’ नहीं
था, जन्मके बाद ‘मैं-पन’ आया और शरीरके नाश होनेपर ‘मैं-पन’ नहीं रहेगा । बीचमें ही ‘मैं-पन’ पैदा हुआ । इसी प्रकार बोरेमें पड़े आटेको और कनस्तरमें पड़े घीको कोई ‘मैं’ नहीं कहता । पर जब वह पेटमें चला गया तो वह भी ‘मैं’ हो गया । इसी प्रकार जब वह मैला-टट्टी बन गया तो ‘मैं-पन’ मैलामें
चला गया । वह मैला भी तो मैं ही था । परन्तु अब उसे ‘मैं’
कहते हैं क्या ? ऐसे ही मानो हाथ या पैर सड़ जाय,
डाक्टर उसे काट दे तो उस ‘मैं’ को आप फेंक देते है । ऐसे ही मर जानेके बाद शरीर यहीं पड़ा रह जाता है और जला
देते हैं । जरा भी दया नहीं आती । अगर शरीर ‘मैं’ होता तो या तो शरीरको
भी अपने साथमें ले जाते अथवा शरीरके साथ हम भी रहते । परन्तु ऐसा नहीं होता । शरीरी
चला जाता है और शरीर यहीं पड़ा रह जाता है । यह इसलिये है कि इस शरीरमें ‘मैं-पन’ माना हुआ है और संसारमें मेरापन माना हुआ है
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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