(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप इस ‘मैं-पन’ को बदल देते
हैं । गृहस्थ आश्रममें रहते हैं तो कहते हैं कि मैं गृहस्थी हूँ । परन्तु साधु बन जाते
हैं तो कहते हैं, मैं साधु हूँ । माता-पिताके
सामने कहते हो कि मैं पुत्र हूँ और पुत्रके सामने कहते हो कि मैं पिता हूँ । इसी प्रकार
भाईके सामने कहते हो कि मैं भाई हूँ, पत्नीके सामने कहते हो कि
मैं पति हूँ । आपसे कोई पूछे कि तुम सच बताओ कि तुम पुत्र हो या पिता हो या पति हो
? तो इसका उत्तर है कि आप स्वयं पुत्र, पिता,
भाई, पति कुछ नहीं हो । पुत्र, पिता, भाई, पति आदि दूसरोंके सामने
हो । दूसरोंकी अपेक्षासे बने हुए हो । इस ‘मैं-पन’ को नष्ट करनेके लिये एक बड़ी सुगम बात है कि ‘मैं-पन’
को शुद्ध कर लिया जाय । शुद्ध कब होता है, शुद्ध
उस समय होता है कि जब माता-पिताके सामने जायँ तो वह कार्य करें
जो सुपुत्र-से-सुपुत्र करता है । ऐसे ही
पत्नीके सामने जायँ तो पतिका पूरा कर्तव्य पालन करें । दूसरे कर्तव्य पालन करें या
न करें, इसकी तरफ विशेष ख्याल नहीं करना है । थोड़ा ख्याल इसलिये करना है कि पुत्र आदिको
शिक्षा देना हमारा कर्तव्य है । उनको कह देना, समझा देना अपना
कर्तव्य है । परन्तु यदि वे कहना न मानें तो दुःख न करें । और हमने तो अपना कर्तव्य-पालन कर दिया इस बातका अभिमान भी न करें । सत्पति अपनी पत्नीके साथ न्याययुक्त,
धर्मयुक्त बर्ताव कर दें, फिर चाहे पत्नी आपसे
लड़ाई करे, आपको दुःख दे, कर्कश व्यवहार
करे । आप अपने कर्तव्यसे मत चूको । ठीक प्रकारसे अपना कर्तव्य
पालन करो तो क्या होगा ? आपका
‘मैं-पन’ शुद्ध हो जायगा । ‘मैं-पन’ शुद्ध होनेपर इसे छोड़नेकी ताकत आपमें आ जायगी
। परन्तु जबतक अन्यायपूर्वक कार्य करते रहोगे, तबतक ‘मैं-पन’ और ‘मेरे-पन’‒की माया छूटेगी नहीं । परन्तु शुद्ध होनेपर यह छूट जायगी, बाँधेगी नहीं । केवल व्यवहारमात्रके लिये मैं और मेरा रहेगा ।
जैसे आप किसी मिलमें काम करते हैं तो
कहते हैं कि मैं अमुक मिलका आदमी हूँ । ऐसे ही रेलवेमें कार्य करते हैं तो कहते हैं
कि मैं रेलवे कर्मचारी हूँ । परन्तु सदा अपनेको मिलका या रेलवेका कर्मचारी नहीं मानते
। इसी प्रकार आप अपनेको पिता, पुत्र, पति, भाई मानें । ऐसे ही यदि आप धनी हैं तो निर्धनोंकी अपेक्षा धनी हैं;
निर्धनोंने ही आपको धनी बनाया है । उदाहरणके लिये यदि नगरमें आप लखपति
हैं और बाकी सब करोड़पति हैं तो आप धनी नहीं कहलाते हो । उनके बीच क्या कभी आपके मनमें
लखपति होनेका अभिमान आता है ? परन्तु आपके अतिरिक्त यदि सभी निर्धन हैं तो आप धनी तथा
लखपति कहलाओगे । अतः इन निर्धनोंके कारण आप धनी हैं । इन्होंने आपको लखपति बनाया ।
इसलिये आपको निर्धनोंकी सेवा करनी चाहियें । जो उपकार लेता
है, परन्तु उपकार करता नहीं,
वह कृतघ्न होता है । अतः धनका अभिमान,
विद्या-बुद्धिका अभिमान, बलका अभिमान करना गलती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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