(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒शरीरी (जीवात्मा)
अविनाशी है, इसका विनाश कोई कर ही नहीं सकता (२ । १७) यह न मारता है और न
मारा जाता है (२ । १९) तो फिर मनुष्यको प्राणियोंकी हत्याका पाप लगना ही नहीं चाहिये
?
उत्तर‒पाप तो पिण्ड-प्राणका वियोग करनेका
लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिण्ड-प्राणमें रहना चाहता है, जीना चाहता है । यद्यपि महात्मालोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारनेका बड़ा भारी पाप लगता है; क्योंकि उनका जीना संसारमात्र चाहता है । उनके जीनेसे
प्राणिमात्रका परम हित होता है, प्राणिमात्रको सदा रहनेवाली शान्ति
मिलती है । जो वस्तुएँ प्राणियोंके लिये जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करनेका उतना
ही अधिक पाप लगता है ।
प्रश्न‒आत्मा नित्य है,
सर्वत्र परिपूर्ण
है, स्थिर स्वभाववाला है (२ । २४), तो फिर इसका पुराने शरीरोंको
छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाना कैसे सम्भव है (२ । २२) ?
उत्तर‒जब यह प्रकृतिके अंश शरीरको अपना मान
लेता है, उसके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह प्रकृतिके अंशके आने-जानेको, उसके जीने-मरनेको अपना आना-जाना, जीना-मरना मान लेता है । उसी दृष्टिसे इसका अन्य शरीरोंमें
चला जाना कहा गया है । वास्तवमें तत्त्वसे इसका आना-जाना, जीना-मरना है ही नहीं ।
प्रश्न‒भगवान् कहते है
कि क्षत्रियके लिये युद्धके सिवाय कल्याणका दूसरा कोई साधन है ही नहीं (२ । ३१), तो क्या लड़ाई करनेसे ही क्षत्रियका कल्याण
होगा, दूसरे किसी साधनसे कल्याण नहीं होगा ?
उत्तर‒ऐसी बात नहीं है । उस समय युद्धका प्रसंग
था और अर्जुन युद्धको छोड़कर भिक्षा माँगना श्रेष्ठ समझते थे; अतः भगवान्ने कहा कि ऐसा स्वतःप्राप्त धर्मयुद्ध शूरवीर
क्षत्रियके लिये कल्याणका बहुत बढ़िया साधन है । अगर ऐसे मौकेपर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध
नहीं करता तो उसकी अपकीर्ति होती है; वह आदरणीय, पूजनीय मनुष्योकी दृष्टिमें लघुताको प्राप्त हो जाता है; वैरी लोग उसकी न कहनेयोग्य वचन कहने लग जाते हैं (२ ।
३४-३६) । तात्पर्य है कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग था, इसीलिये भगवान्ने युद्धको श्रेष्ठ साधन बताया । युद्धके
सिवाय दूसरे साधनसे क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता‒यह बात नहीं है; क्योंकि पहले भी बहुत-से राजालोग चौथे आश्रममें वनमें
जाकर साधन-भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
|