गीताभ्यासेन ये जाताः
साधकेष्वपि संशयाः ।
अत्र तेषां समाधानं क्रियते हि समासतः
॥
प्रश्न‒कौरव-सेनाके तो शंख, भेरी, ढोल आदि कई बाजे बजे (१ । १३), पर पाण्डव सेनाके केवल शंख ही
बजे (१ । १५-१९) ऐसा क्यों ?
उत्तर‒युद्धमें विपक्षकी सेनापर विशेष व्यक्तियोंका
ही असर पड़ता है, सामान्य व्यक्तियोंका नहीं । कौरव-सेनाके
मुख्य व्यक्ति भीष्मजीके शंख बजानेके बाद सम्पूर्ण सैनिकोंने अपने-अपने (कई प्रकारके)
बाजे बजाये, जिसका पाण्डव-सेनापर कोई असर नहीं पड़ा
। परन्तु पाण्डव-सेनाके मुख्य व्यक्तियोंने अपने-अपने शंख बजाये, जिनकी तुमुल ध्वनिने कौरवोंके हृदयको विदीर्ण कर दिया
।
प्रश्न‒भगवान् तो जानते ही थे कि भीष्मजीने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया
है (१ । १२)
यह युद्धारम्भ की घोषणा नहीं है । फिर भी भगवान्ने शंख क्यों बजाया (१ । १४) ?
उत्तर‒भीष्मजीका शंख बजते ही कौरवसेनाके सब
बाजे एक साथ बज उठे । अतः ऐसे समयपर अगर पाण्डवसेनाके बाजे न बजते तो बुरा लगता, पाण्डवसेनाकी हार सूचित होती और व्यवहार भी उचित नहीं
लगता । अतः भक्तपक्षपाती भगवान्ने पाण्डवसेनाके सेनापति धृष्टद्युम्नकी परवाह न करके
सबसे पहले शंख बजाया ।
प्रश्न‒अर्जुनने पहले अध्यायमें धर्मकी बहुत-सी बातें कही हैं । जब वे धर्मकी इतनी बातें
जानते थे, तो फिर उनको मोह क्यों हुआ ?
उत्तर‒कुटुम्बकी ममता विवेकको दबा देती है, उसकी मुख्यताको नहीं रहने देती और मनुष्यको मोह-ममतामें
तल्लीन कर देती है । अर्जुनको भी कुटुम्बकी ममताके कारण मोह हो गया ।
प्रश्न‒जब अर्जुन पापके होनेमें लोभको कारण मानते थे (१ । ३८, ४५), तो फिर उन्होंने ‘मनुष्य
न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है’ (३ । ३६)‒यह प्रश्र क्यों किया ?
उत्तर‒कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन (पहले
अध्यायमें) युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मानते थे
अर्थात् शरीर आदिको लेकर उनकी दृष्टि केवल भौतिक थी । अतः वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें
लोभको हेतु मानते थे । परंतु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने कल्याणकी इच्छा
जाग्रत् हो गयी (३ । २) । अतः वे पूछते है कि मनुष्य न चाहता हुआ भी न करनेयोग्य काममें
प्रवृत्त क्यों होता है ? तात्पर्य है कि पहले अध्यायमें तो अर्जुन
मोहाविष्ट होकर कह रहे हैं और तीसरे अध्यायमें वे साधककी दृष्टिसे पूछ रहे हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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