(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒परमात्मा तो सर्वव्यापी हैं, फिर उनको (३ । १५ में) केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों
कहा गया है ? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं ?
उत्तर
प्रश्न‒भगवान् कहते हैं कि मैं भी कर्तव्यका पालन करता हूँ; क्योंकि अगर मैं सावधानीपूर्वक
कर्तव्यका पालन न करूँ तो लोग भी कर्तव्यच्युत हो जायँगे (३ । २२-२४), तो फिर वर्तमानमें
लोग कर्तव्यच्युत क्यों हो रहे हैं ?
उत्तर‒भगवानके वचनों और आचरणोंका असर उन्हीं
लोगोंपर पड़ता है, जो आस्तिक हैं, भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास रखनेवाले
हैं । जो भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास नहीं रखते, उनपर भगवान्के वचनों और आचरणोंका असर नहीं पड़ता ।
प्रश्न‒ज्ञानवान् पुरुष
अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) के अनुसार चेष्टा करता है (३ । ३३), पर वह बँधता नहीं । अन्य
प्राणी भी अपनी प्रकृतिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं,
पर वे बँध जाते
हैं । ऐसा क्यों ?
उत्तर‒ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति तो राग-द्वेषरहित, शुद्ध होती है; अतः वह प्रकृतिको अपने वशमें करके ही चेष्टा करता है, इसलिये वह कर्मोसे बँधता
नहीं । परंतु अन्य प्राणियोंकी प्रकृतिमें राग-द्वेष रहते हैं और वे प्रकृतिके वशमें
होकर राग-द्वेषपूर्वक कार्य करते हैं, इसलिये वे कर्मोसे बँध जाते हैं । अतः मनुष्यको अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव शुद्ध‒निर्मल बनाना चाहिये और अपने अशुद्ध
स्वभावके वशमें होकर कोई कार्य नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न‒चौथे अध्यायके सातवें
श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अपने-आपको साकाररूपसे प्रकट करता हूँ, और फिर वे
नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें कहते हैं कि मैं अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त
हूँ, तो जो एक देशमें प्रकट हो जाते हैं, वे सब देशमें कैसे व्याप्त रह सकते हैं और जो सर्वव्यापक
हैं, वे एक देशमें कैसे प्रकट हो जाते हैं ?
उत्तर
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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