(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ (४ । १२), पर यह बात देखनेमें नहीं आती । ऐसा क्यों ?
उत्तर‒कर्मजन्य सिद्धि, कर्मोंका फल दो प्रकारका होता है‒तात्कालिक और कालान्तरिक
। तात्कालिक फल शीघ्र देखनेमें आता है और कालान्तरिक फल समय पाकर देखनेमें आता है, शीघ्र देखनेमें नहीं आता । भोजन किया और भूख मिट गयी, जल पिया और प्यास मिट गयी, गरम कपड़ा ओढ़ा और जाड़ा दूर हो गया‒यह तात्कालिक फल है ।
इसी तरह किसीको प्रसन्न करनेके लिये उसकी स्तुति-प्रार्थना करनेसे, उसकी सेवा करनेसे वह प्रसन्न हो जाता है; ग्रहोंकी सांगोपांग विधिपूर्वक पूजा करनेसे ग्रह शान्त हो जाते है; महामृत्युञ्जय मन्त्रका जप करनेसे रोग दूर हो जाते है; गयामें विधिपूर्वक श्राद्ध करनेसे जीव प्रेतयोनिसे छूट जाता है और उसकी सद्गति हो जाती है‒यह सब कर्मोका
तात्कालिक फल है । इस तात्कालिक फलको दृष्टिमें रखकर ही लोग देवताओंकी उपासना करते
है । अतः ‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’‒ऐसा कहा गया है ।
प्रश्न‒ज्ञानिजन ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी, कुत्ते आदिमें समदर्शी होते हैं (५ । १८), तो फिर वर्ण,
आश्रम आदिका अड़ंगा
क्यों ?
उत्तर‒ज्ञानी महापुरुषका व्यवहार तो ब्राह्मण, चाण्डाल गाय, हाथी आदिके शरीरोंको लेकर यथायोग्य ही होता है । शरीर नित्य-निरन्तर बदलते है; अतः ऐसे परिवर्तनशील शरीरमें उनकी विषमता रहती है और
रहनी ही चाहिये । कारण कि सभी प्राणियोंके साथ खान-पान आदि व्यवहारकी एकता, समानता तो कोई कर ही नहीं सकता अर्थात् सबके साथ व्यवहारमें
विषमता तो रहेगी ही । ऐसी विषमतामें भी तत्त्वदर्शी पुरुष एक परमात्माको ही समानरूपसे
देखते हैं । इसीलिये भगवान्ने तत्त्वज्ञ पुरुषोंके लिये ‘समदर्शिनः’ कहा है, न कि ‘समवर्तिनः’ । समवर्ती (समान व्यवहार करनेवाला) तो यमराजका, मौतका
नाम है[*], जो कि सबको समानरूपसे मारती है ।
प्रश्र‒भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५ । २९), बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेवाले
हैं, तो फिर वे प्राणियोंको ऊँच-नीच गतियोंमें क्यों भेजते हैं ?
उत्तर‒सबके सुहृद् होनेसे ही तो भगवान् प्राणियोंको
उनके कर्मोके अनुसार ऊँच-नीच गतियोंमें भेजकर उनको पुण्य-पापोसे शुद्ध करते हैं, पुण्य-पापरूप बन्धनसे ऊँचा उठाते हैं (९ । २०-२१; १६ । १९-२०) ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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