(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒बहुत जन्मोंके अन्तमें
'सब कुछ वासुदेव ही है'‒ऐसा ज्ञान होता है (७ । १९), तो फिर इसी जन्ममें मनुष्य
भगवत्प्राप्ति कैसे कर सकता है ?
उत्तर‒इस श्लोकमें आये ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ पदोंका अर्थ ‘बहुत जन्मोंके अन्तमें’ नहीं है, प्रत्युत ‘बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्म इस मनुष्य शरीरमें’‒ऐसा अर्थ है । कारण कि
यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है । भगवान्ने मनुष्यके कल्याणके लिये
अपनी तरफसे अन्तिम जन्म दिया है अर्थात् मनुष्यको अपना कल्याण करनेका पूरा अधिकार दिया
है । अब इसके आगे यह नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले‒इसमें यह सर्वथा
स्वतन्त्र है ।
गीतामें भगवान्ने कहा है कि ‘मनुष्य अन्तकालमें
जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है, उस-उस भावको ही वह प्राप्त होता है’ (८ । ६); ‘जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताकी उपासना
करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको
दृढ़ कर देता हूँ’ (७ । २१)‒इन भगवद्वचनोंसे मनुष्यजन्मकी
स्वतन्त्रता सिद्ध होती है । मनुष्य सकामभावसे शुभ कर्म करके स्वर्ग आदिमें भी जा सकता
है; पाप-कर्म करके पशु-पक्षी, भूत-पिशाच आदि योनियोंमें तथा नरकोंमें भी जा सकता है; और पाप-पुण्योंसे रहित होकर भगवान्को भी प्राप्त कर सकता
है । इस अन्तिम मनुष्यजन्ममें यह जो चाहे, वह कर सकता है ।
जैसे यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम
जन्म है, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म भी है; क्योंकि इस मनुष्यजन्ममें किये हुए कर्मोका ही फल स्वर्ग, नरक और चौरासी लाख योनियोंमें भोगना पड़ता है । इसी मनुष्यजन्ममें
सम्पूर्ण जन्मोंके बीज बोये जाते हैं ।
प्रश्न‒भगवान् भूत,
वर्तमान ओंर भविष्यके
सम्पूर्ण प्राणियोंको जानते हैं (७ । २६); अतः कौन-सा प्राणी किस गतिमें जायगा‒यह भी भगवान् जानते ही
हैं अर्थात् भगवान् जिसकी जैसी गति जानते हैं,
उसकी वैसी ही गति होगी, तो फिर मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता
कहाँ रही ?
उत्तर‒भगवान्का भूत,वर्तमान और भविष्यके प्राणियोंको जो जानना है, वह उनकी गतियोंको निश्चित करनेमें नहीं है कि अमुक प्राणी
अमुक गतिमें ही जायगा । भगवान् अपने अंश सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वतः जानते हैं और
सम्पूर्ण प्राणी भगवान्की जानकारीमें स्वतः हैं‒इसीमें उपर्युक्त कथनका तात्पर्य है
। अगर भगवान्का जानना प्राणियोंकी गति निश्चित करनेमें ही होता तो फिर भगवान् ‘ये
मनुष्य मेरेको प्राप्त न करके मौतके रास्तेमें पड़ गये’ (९ । ३); ‘मेरेको प्राप्त न करके अधोगतिमें चले गये’ (१६ । २०)–ऐसा पश्चात्ताप नहीं करते; क्योंकि अगर उन्होंने ही उनकी गतियोंको निश्चित किया है तो फिर पश्चात्ताप किस
बातका ? दूसरी बात, श्रुति और स्मृति भगवान् की ही आज्ञा है‒‘श्रुतिस्मृती
ममैवाज्ञे’ । श्रुति और स्मृतिमें विधि-निषेध आया
है कि शुभ कर्म करो, निषिद्ध कर्म मत करो; शुभ कर्म करनेसे तुम्हारी सद्गति होगी और निषिद्ध कर्म
करनेसे तुम्हारी दुर्गति होगी । अगर भगवान्ने प्राणियोंकी गतियोंको पहले ही निश्चित
कर रखा होता तो श्रुति और स्मृतिका विधि-निषेध किसपर लागू होता ? तात्पर्य है कि मनुष्य अपना उद्धार करनेमें स्वतन्त्र
है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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