।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
महर्षि वाल्मीकि-जयन्ती, कार्तिक स्नानारम्भ
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(२१ अक्टूबरके ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नपंद्रहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्‌ कहते हैं कि ‘उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ’‒‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’, तो क्या भगवान्‌ भी किसीके  शरण होते हैं ?

उत्तरभगवान्‌ किसीके भी शरण नहीं होते; क्योंकि वे सर्वोपरि हैं । केवल लोकशिक्षाके लिये भगवान्‌ साधककी भाषामें बोलकर साधकको यह बताते है कि वह ‘उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ’‒ऐसी भावना करे ।

प्रश्नयह जीव परमात्माका अंश है (१५ | ७), तो क्या यह जीव परमात्मासे पैदा हुआ है ? क्या यह जीव परमात्माका एक टुकड़ा है ?

उत्तर‒ऐसी बात नहीं है । यह जीव अनादि है, सनातन है और परमात्मा पूर्ण है; अतः जीव परमात्माका टुकड़ा कैसे हो सकता है ? वास्तवमें यह जीव परमात्मस्वरूप ही है; परंतु जब यह प्रकृतिके अंशको अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन बुद्धिको ‘मैं और मेरा’ मान लेता है, तब यह अंश हो जाता है । प्रकृतिके अंशको छोड़नेपर यह पूर्ण हो जाता है ।

प्रश्नसात्त्विक आहारमें पहले फल (परिणाम) का वर्णन करके फिर आहारके पदार्थोंका वर्णन किया और राजस आहारमें पहले आहारके पदार्थोंका वर्णन करके फिर फलका वर्णन किया;परंतु तामस आहारके फलका वर्णन किया ही नहीं (१७ । ८-१०)‒ऐसा क्यों ?

उत्तरसात्त्विक मनुष्य पहले फल (परिणाम) की तरफ देखते हैं, फिर वे आहार आदिमें प्रवृत्त होते हैं, इसलिये पहले परिणामका और बादमें खाद्य पदार्थोंका वर्णन किया गया है । राजस मनुष्योंकी दृष्टि पहले खाद्य पदार्थोंकी तरफ, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धकी तरफ जाती है, परिणामकी तरफ नहीं । अगर राजस मनुष्योंकी दृष्टि पहले परिणामकी ओर चली जाय तो वे राजस आहार आदिमें प्रवृत्त होंगे ही नहीं । अतः राजस आहारमें पहले खाद्य पदार्थोंका और बादमें परिणामका वर्णन किया गया है । तामस मनुष्योंमें मूढ़ता (बेहोशी) छायी हुई रहती है, इसलिये उनमें आहार और उसके परिणामका विचार होता ही नहीं । आहार न्याययुक्त है या नहीं, उसमें हमारा अधिकार है या नहीं, शास्त्रोंकी आज्ञा है या नहीं और उसका परिणाम हमारे लिये हितकर है या नहीं‒इन बातोंपर तामस मनुष्य कुछ भी विचार नहीं करते, इसलिये तामस आहारके परिणामका वर्णन नहीं किया गया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे