(गत ब्लॉगसे आगेका)
माननेके साथ ज्ञानका विरोध न हो । संसार पहले नहीं था और आगे
नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है‒इसका हमें ज्ञान है । अतः संसारकी
मान्यता ज्ञान-विरोधी है और नित्य रहनेवाली नहीं है । परमात्मा पहले भी था,
आगे भी रहेगा और अभी भी है‒यह मान्यता नित्य रहनेवाली है । परमात्मा केवल माननेका, श्रद्धाका
विषय है, तर्कका विषय नहीं है । तर्कका विषय वह होता है, जिसके
विषयमें हम कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते । परमात्माके विषयमें हम कुछ नहीं जानते, अतः
उसको मानना ही पड़ता है । उसको मानें या न मानें‒इसमें आप स्वतन्त्र हैं । परमात्माको, सन्त-महात्माको, शास्त्रको‒इनको
मानना ही पड़ता है । इस संसारका
कोई आधार है, कोई आश्रय है; यह किसीसे उत्पन्न हुआ है,
किसीके आश्रित है, किसीसे पालित है, किसीमें लीन हो जायगा‒इस प्रकार पहले उसको
मानना पड़ेगा, फिर वह दीख जायगा ।
हमारेसे गलती यही होती है कि हम न तो करनेमें,
न जाननेमें और न माननेमें दृढ़ होते हैं । इतनी दृढ़ता होनी चाहिये
कि अगर परमात्मा खुद आकर कह दे कि तुम गलत हो,
तो कह दे कि इसमें आपकी गलती है,
मेरी गलती नहीं है;
आप भूल गये होंगे, मैं नहीं भूला हूँ ! पार्वतीजीने कहा‒
जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ
कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर
उपदेसू ।
आपु कहहिं सत् बार
महेसू ॥
(मानस, बाल॰ ८१ । ३)
यह मान्यता है । मिलेंगे तो परमात्मासे
मिलेंगे । हमें और किसीसे मिलनेकी जरूरत नहीं है । हमें न तो भोगोंकी जरूरत है, न संग्रहकी
जरूरत है, हमें तो एक परमात्माकी जरूरत है । ऐसा मान लें तो
बेड़ा पार हो जायगा । दूसरा कुछ
करनेकी, जाननेकी जरूरत नहीं । केवल दृष्टतासे मान लो तो प्राप्ति हो
जायगी, पूर्णता हो जायगी, कमी नहीं रहेगी । केवल माननेसे सब काम हो जायगा ।
अगर अपने-आपको ठीक-ठीक जान लो तो जानना पूरा हो जायगा । ठीक-ठीक
जाननेमात्रसे बेड़ा पार हो जायगा । परन्तु अपने-आपको जाने बिना आप पृथ्वी और स्वर्ग-नरक-पाताल
आदिकी कितनी ही बातें सीख लो, पर जानना बाकी रहेगा । ऐसे ही जबतक अपने लिये करोगे,
तबतक चाहे कितना ही कर लो,
ब्रह्मलोकतक चले जाओ,
पर करना बाकी रहेगा । केवल दूसरोंके
लिये करोगे तो करना बाकी नहीं रहेगा ।
तात्पर्य है कि दूसरोंके लिये ‘करना’ है,
अपनेको ‘जानना’
है और परमात्माको ‘मानना’ है
। इन तीनोंमेंसे किसी एकमें भी दृढ़ता होनेपर तीनोंकी पूर्ति हो जायगी । चाहे कर लो, चाहे जान लो और चाहे मान लो । करनेका ज्यादा वेग हो तो कर लो,
जाननेकी जिज्ञासा हो तो जान लो और माननेका स्वभाव हो तो मान
लो । किसी एकपर भी दृढ़ हो जाओ तो करना, जानना और मानना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा । दूसरोंके लिये करना
‘कर्मयोग’ है, अपनेको जानना ‘ज्ञानयोग’ है और परमात्माको मानना ‘भक्तियोग’ है । इनमेंसे किसी एकके पूरा होनेपर तीनों पूरे हो जायँगे ।
जब करना, जानना
और पाना बाकी नहीं रहेगा, तब मनुष्यजीवन सफल हो जायगा ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे
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