(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रायः लोगोंने मान रखा है कि उस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये बड़ा उद्योग करना पड़ता
है; जंगलमें जाकर रहना पड़ता है, तपस्या करनी पड़ती है, बडे कष्ट सहने पड़ते हैं,
तब कहीं वह तत्त्व मिलता है । ऐसी एक धारणा बनी हुई है । मेरी भी ऐसी
धारणा रही है । परंतु वास्तवमें बात ऐसी नहीं है । जितने
भी संसारके काम हैं, उन सबसे
यह काम सुगम है । जो सब कुछ छोड़कर साधु बन जाय,
वह उस तत्त्वको प्राप्त कर ले‒ऐसी बात भी नहीं है । गृहस्थ उस तत्त्वको
प्राप्त नहीं कर सकता‒यह बात भी नहीं है । पढ़ा-लिखा प्राप्त कर
सकता है, अनपढ़ नहीं कर सकता‒यह बात भी नहीं है । बहुत बलवान्
होगा, तितिक्षु होगा, सहिष्णु होगा,
वही प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं कर सकता‒ऐसी
बात भी नहीं है । कहनेका भाव यह है कि हम सब-के-सब उस तत्त्वको प्राप्त
करनेके पूरे अधिकारी हैं । केवल एक ही लक्ष्य हो जाय कि हमें तो उस तत्त्वकी प्राप्ति
करनी है । उसकी प्राप्तिके लिये ही सब सामग्री मिली हुई है । आवश्यकता होगी तो और सामग्री
मिल जायगी‒परमात्माके यहाँ यह एक विलक्षण कायदा है । जैसे,
आदमी बोलते-बोलते थक जाता है तो वह चुप हो जाता
है और चुप होनेपर उसमें पुनः बोलनेकी शक्ति आ जाती है । चलते-चलते थक जाता है तो थोड़ी देर विश्राम करनेसे उसमें पुनः चलनेकी शक्ति आ जाती
है । दिनभर काम करते-करते थककर रातमें सो जाता है तो सुबह पुनः
ताजगी आ जाती है । तात्पर्य है कि मनुष्य जिस किसी कामको करता है, उसमें थकावट होनेपर बिना परिश्रमके, मुफ्तमें सामर्थ्य
मिलती है । यह हम सबका अनुभव है । आप बताओ कि दिनभर काम करनेसे थक जाते हो तो रातमें
कौन-सा परिश्रम करते हो कि जिससे सुबह शक्ति मिलती है
? चुपचाप पड़े रहनेसे ही शक्ति मिल जाती है । जितनी गाढ़ नींद आयेगी,
उतनी शक्ति मिलेगी । वह शक्ति परमात्माकी है । परंतु थोड़ी शक्तिमें संतोष
न करें, उसमें फँसे नहीं तो महान् शक्ति मिल सकती है । वह महान्
शक्ति, वह परमात्म-तत्त्व आपको,
हमको, सबको मिल सकता है । वह तत्त्व पहले जमानेमें जैसे मिलता था, उससे तो अभी बहुत सस्ता है । सत्य, त्रेता, द्वापरयुगमें उम्र
भी ज्यादा होती थी, बुद्धि भी तेज होती थी, सामर्थ्य भी अधिक होती थी, उनके लिये वह चीज कठिन थी
। जैसे, बड़े आदमीको सब तरहकी अनुकूलता मिलनी कठिन होती है;
परंतु बालकको सुगमतासे अनुकूलता मिल जाती है । माँ-बापको समयपर अन्न न मिले तो भी वे बालकके लिये प्रबन्ध कर ही देते हैं;
क्योंकि वह असमर्थ है । इसी तरहसे हम जितने
असमर्थ होते हैं, उतनी ही हमें
परमात्माकी तरफसे सामर्थ्य मिलती है । इतना ही नहीं, हमारी सामर्थ्यसे
भी बढ़कर हमें सुविधा मिलती है । जैसे, बालक जितना छोटा होता है, उतनी ही उसको ज्यादा सुविधा
मिलती है ।
हमारी चाहना, भीतरकी उत्कण्ठा,
लालसा, अभिलाषा जोरदार जाग्रत् हो जाय । परंतु
वह तब जाग्रत् होगी, जब हमें जो कुछ मिला है, उसमें हम संतोष न करें । कारण कि नाशवान् वस्तुसे हमारी कभी तृप्ति होगी नहीं । अगर नाशवान्से ऊँचे उठकर अविनाशी-तत्त्वको
प्राप्त करनेकी तीव्र अभिलाषा जागृत हो जाय, तो वह प्राप्त हो
जायगा ।
नारायण !
नारायण !! नारायण !!!
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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