(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒मोह नष्ट होनेपर
और स्मृति प्राप्त होनेपर फिर कभी उसकी विस्मृति नहीं होती,
तो फिर अर्जुनने ‘अनुगीता' में यह कैसे कह दिया कि मैं तो उस ज्ञानको भूल गया हूँ
(महाभारत, आश्वमेधिक॰ १६ । ६) ?
उत्तर‒भगवान्ने गीतोपदेशके समय अर्जुनको
भक्तियोग और कर्मयोगका अधिकारी माना था और मध्यम पुरुषसे प्रायः भक्तियोग और कर्मयोगका
ही उपदेश दिया था । अतः अर्जुन भक्तियोग और कर्मयोगकी बातें नहीं भूले, प्रत्युत ज्ञानकी बातें ही भूले थे । इसलिये अनुगीतामें
भगवान्ने ज्ञानका ही उपदेश दिया ।
प्रश्र‒अनुगीतामें भगवान्ने कहा है कि उस समय मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी,
पर अब मैं वैसी
बातें नहीं कह सकता (महाभारत, आश्वमेधिक॰ १६ । १२-१३), तो क्या भगवान् भी कभी योगमें स्थित रहते हैं
और कभी योगमें स्थित नहीं रहते ? क्या भगवान्का ज्ञान भी आगन्तुक है ?
उत्तर‒जैसे बछड़ा गायका दूध पीने लगता है तो
गायके शरीरमें रहनेवाला दूध स्तनोंमें आ जाता है, ऐसे ही श्रोता उत्कण्ठित होकर जिज्ञासापूर्वक कोई बात पूछता है तो वक्ताके भीतर
विशेष भाव स्फुरित होने लगते हैं । गीतामें अर्जुनने उत्कण्ठा और व्याकुलता-पूर्वक
अपने कल्याणकी बातें पूछी थीं, जिससे भगवान्के भीतर विशेषतासे भाव
पैदा हुए थे । परंतु अनुगीतामें अर्जुनकी उतनी उत्कण्ठा, व्याकुलता नहीं थी । अतः गीतामें जैसा रसीला वर्णन आया
है, वैसा वर्णन अनुगीतामें नहीं आया ।
प्रश्न
उत्तर‒वास्तवमें विभूतियाँ कहनेमें भगवान्का
तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदिका महत्त्व बतानेमें नहीं
है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेमें है । अतः गीता और भागवत‒दोनों
ही जगह कही हुई विभूतियोंमें भगवान्का चिन्तन करना ही मुख्य है । इस दृष्टिसे जहाँ-जहाँ
विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी विशेषता
न देखकर केवल भगवान्की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान्की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये
। तात्पर्य है कि मन जहाँ-कहीं चला जाय, वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये‒इसके लिये ही भगवान्ने विभूतियोंका वर्णन
किया है ( १० । ४१) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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