(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒जैसे भागवतमें भगवान्ने
उद्धवजीको जो उपदेश दिया, उसका नाम ‘उद्धवगीता’
है,
ऐसे ही गीताका नाम
भी ‘अर्जुनगीता' होना चाहिये, फिर इसका नाम 'भगवद्गीता' क्यों हुआ है ?
उत्तर‒भागवतमें तो स्वयं उद्धवजीने भगवान्से
जिज्ञासापूर्वक प्रश्र किये हैं; अतः उनके संवादका नाम ‘उद्धवगीता’ रखना ठीक ही है । परंतु गीता कहनेकी बात तो स्वयं भगवान्के
ही मनमें आयी थी; क्योंकि अर्जुन तो युद्ध करनेके लिये
ही आये थे, उपदेश सुननेके लिये नहीं । गीता कहनेकी
बात मनमें होनेसे ही तो भगवान्ने अर्जुनका रथ पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यके
सामने खड़ा करके अर्जुनसे ‘हे पार्थ ! इन कुरुवंशियोंको देख’
प्रश्न
उत्तर‒जब भगवान्की माया भी अघटित-घटना-पटीयसी है, तो फिर स्वयं भगवान् थोड़े समयमें बहुत कुछ कह दें, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
महाभारतको देखनेसे मालूम होता है कि समय थोड़ा
नहीं था । अर्जुनने भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें अपना रथ खड़ा करनेके लिये कहा तो
भगवान्ने अर्जुनके रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दिया । जब दोनों सेनाओंके बीचमें
रथ खड़ा हो और उसमें दोनों मित्र आपसमें बातचीत कर रहे हों, तब दोनों सेनाओंमें युद्ध कैसे हो ? अतः दोनों सेनाएँ बड़ी शान्तिसे खड़ी थीं ।
गीताका उपदेश पूरा होनेके बाद युधिष्ठिर निःशस्त्र
होकर कौरवसेनामें गये । उनके साथ भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और भगवान् श्रीकृष्ण भी थे । कौरवसेनामें जाकर
वे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदिसे मिले और उनके साथ बातचीत भी की । फिर वहाँसे लौटते समय युधिष्टिरने
घोषणा की कि यह सब कौरवसेना मरेगी, अगर कोई बचना चाहे तो वह हमारी सेनामें आ सकता है । युधिष्टिरकी ऐसी घोषणा सुनकर
दुर्योधनका भाई युयुत्सु नगाड़ा बजाते हुए पाण्डवसेनामें चला आया । इसके बाद ही युद्ध
आरम्भ हुआ । इससे भी यही सिद्ध होता है कि गीतोपदेश देनेके लिये पर्याप्त समय था ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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