(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न
उत्तर‒उस समय जो भाषा स्वाभाविक प्रचलित थी, उसी भाषामें अर्जुनने प्रश्र किये और उसी भाषामें भगवान्ने
उत्तर दिया, उपदेश दिया । वास्तवमें जहाँ जिज्ञासापूर्तिके
लिये असली व्याकुलता होती है, वहाँ वक्ता और श्रोताका ध्यान भाषाकी
तरफ नहीं जाता, प्रत्युत उनका ध्यान भावकी तरफ ही रहता
है । बोलते समय वक्ताको कोई प्रमाण याद आ जाता है तो वह प्रमाण जिस भाषामें होता है, उसी भाषामें वह बोल देता है । इसी तरह भगवान्ने अर्जुनको
गद्यमें उपदेश दिया और उसमें प्रमाणरूपसे जो श्रुतियाँ कहीं, वे ज्यों-की-त्यों पद्यमें ही कहीं, जैसे ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति.....’ (८ । ११) आदि । तात्पर्य है कि भगवान्ने गीताका
उपदेश उभयात्मक अर्थात् गद्यात्मक और पद्यात्मक
प्रश्न‒वेदव्यासजीके द्वारा श्लोकबद्धकी हुई होनेसे गीता भगवान्की वाणी कैसे हुई ?
उत्तर‒वेदव्यासजीकी कृति ऐसी विलक्षण है कि
जहाँ जो वक्ता जैसा बोलता है, वहाँ वैसी ही भाषा देते हैं । जैसे, भागवतमें ब्रह्माजीके, ग्वालबालोंके, गोपियोंके और भगवान्के वचनोंको देखें
तो ब्रह्माजीके वचन और तरहके लगेंगे, ग्वालबालोंके वचन ग्रामीणवचनों जैसे ही लगेंगे गोपियोंके वचन स्त्रीयोंके वचनों
जैसे ही लगेंगे और भगवान्के वचन भी और तरहके लगेंगे । इसी तरह गीतामें भगवान्की वाणीको
भी वेदव्यासजीने उसी तरहसे श्लोकोंका रूप दिया है । अतः गीता भगवान्की ही वाणी है‒इसमें
कोई संदेह नहीं है ।
प्रश्न‒गीताके अनुसार कर्मयोग ज्ञानयोगका साधन है या स्वतन्त्र है ?
उत्तर‒गीताने कर्मयोगको ज्ञानयोगका साधन भी
बताया है और स्वतन्त्र भी बताया है; जैसे‒‘कर्मयोगके बिना ज्ञानयोगकी प्राप्ति कठिनतासे होती है’ (५ । ६), ‘जिन्होने कर्मयोगके द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध
नहीं किया है, वे अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वको
नहीं जानते’ (१५ । ११)‒यहाँ भगवान्ने कर्मयोगको
ज्ञानयोगका साधन बताया है ।
‘ज्ञानयोग और कर्मयोग‒ये दोनों ही परमात्माको
प्राप्त करनेके लिये समकक्ष हैं’ (५ । ५); ‘कर्मयोगके द्वारा मनुष्य अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वका
अनुभव कर लेता है’ (१३ । २४)‒यहाँ भगवान्ने कर्मयोगको
स्वतन्त्र बताया है । तात्पर्य है कि कर्मयोग ज्ञानयोगका साधन भी बनता है और स्वतन्त्रतासे
भी कल्याण करता है ।
प्रश्न‒कर्मयोगके साधनोंमें सेवा करना मुख्य है, फिर गीतामें कर्मयोगके प्रकरणोंमें सेवाकी बात क्यों नहीं आयी
?
उत्तर‒गीतामें आये ‘यज्ञार्थ-कर्म’, ‘लोकसंग्रह’ आदि शब्दोंको सेवाके ही वाचक मानना चाहिये । कारण कि लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके
लिये, मात्र दुनियाके हितके लिये अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग
करके जो कर्म किये जाये, वे सब ‘सेवा’ ही हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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