पराधीनता सबको बुरी लगती है । पराधीन
मनुष्यको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता‒‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १ । १०२ । ३) । ऐसा होनेपर
भी मनुष्य दूसरेसे सुख चाहता है, दूसरेसे मान चाहता है, दूसरेसे प्रशंसा चाहता है, दूसरेसे लाभ चाहता है‒यह कितने आश्चर्यकी
बात है ! वस्तुसे, व्यक्तिसे, परिस्थितिसे, घटनासे, अवस्थासे जो सुख चाहता है, आराम चाहता है, लाभ चाहता है, उसको पराधीन होना ही पड़ेगा, बच नहीं सकता, चाहे ब्रह्मा हो, इन्द्र हो, कोई भी हो । मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि भगवान् भी बच नहीं
सकते । जो दूसरेसे कुछ भी चाहता है, वह पराधीन होगा ही ।
परमात्माको चाहनेवाला पराधीन नहीं होता; क्योंकि परमात्मा दूसरे नहीं हैं । जीव तो परमात्माका
साक्षात् अंश है । परन्तु परमात्माके सिवाय दूसरी चीज हम
चाहेंगे तो पराधीन हो जायँगे; क्योंकि परमात्माके सिवाय दूसरी चीज
अपनी है नहीं । दूसरी चीजकी चाहना न होनेसे ही परमात्माकी चाहना पैदा होती है । अगर दूसरी चीजकी चाहना न रहे तो
परमात्मप्राप्ति हो जाय ।
कुछ भी चाहना हो, वह चाहना दरिद्रताको सिद्ध करती है । अतः मुफ्तमें दरिद्रता
क्यों खरीदते हो ? अगर सुखी होना चाहते हो
तो दूसरेसे सुख मत चाहो । दूसरेसे हमें लाभ होगा, यह खाता भीतरसे उठा दो । दूसरेसे कुछ नहीं हो सकता । दूसरेसे
कुछ भी चाहनेवाला क्या पराधीनतासे बच सकता है ? क्या वह स्वतन्त्र हो सकता है ? इसलिये यह बात पक्की कर लें कि कोई भी चाहना हम नहीं रखेंगे । परमात्मासे भी किसी चीजकी चाहना नहीं रखेंगे ।
जो अपनेको उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुके
अधीन मानेगा, वह सुखी कैसे होगा ? क्योंकि स्वयं उत्पन्न और नष्ट होनेवाला नहीं है । स्वयं
अविनाशी है । एक और विलक्षण बात है कि जो दूसरेसे चाहता है, वह वास्तवमें अनधिकारी है, अधिकारी है ही नहीं । जैसे, जो दूसरेसे सम्मान चाहता है, वह सम्मानके लायक नहीं है । जो सम्मानके
लायक होगा, उसको सम्मानकी चाहना नहीं
होगी । आप
खयाल करें कि अठारह अक्षौहिणी सेनामें, जिसमें सब क्षत्रिय-ही-क्षत्रिय हैं, स्वयं क्षत्रिय होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्णका एक व्यक्तिका सारथि बन जाना, उसके रथके घोड़े हाँकना कितने तिरस्कारकी बात है ! घोड़े
हाँकना क्या बड़ा काम है ? क्या यह सम्मानकी बात है ? परन्तु उनको ऐसा काम करनेमें शर्म नहीं आती । वे सम्मानके
लायक हैं, इसलिये उनमें सम्मानकी इच्छा नहीं है । वे सम्मानके लायक
हैं, इसका क्या पता ? उधर सबसे पहले भीष्मजी शंख बजाते हैं और इधर सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण शंख बजाते
हैं ! कारण कि कौरवसेनामें सबसे मुख्य भीष्मजी हैं और पाण्डवसेनामें सबसे मुख्य भगवान्
श्रीकृष्ण हैं ।
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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