(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसको सम्मानकी इच्छा रहती
है, वह सम्मानका गुलाम है, सम्मानके लायक है ही नहीं । जिसको चेलेकी
इच्छा रहती है, वह चेलेका गुलाम (चेला)
है, गुरु है ही नहीं । जिसको धनकी इच्छा
रहती है, वह धनका गुलाम है, धनका मालिक है ही नहीं । अतः इच्छाको
मनसे निकाल ही देना चाहिये ।
जीवात्माके लिये आया है‒‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस ७ । ११७ । १) और ब्रह्मके लिये आया है‒‘व्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन घन आनँद रासी ॥’ (मानस १ । २३ । ३) । अतः जो आनन्दराशि ब्रह्म है, उसीका साक्षात् अंश यह जीवात्मा है । दोनोंके समान लक्षण
बताये गये हैं । ऐसा होते हुए भी जीव तुच्छ चीजोंकी चाहना करे, यह कितनी बेइज्जतीकी बात है ! कितना बड़ा इसका पद है !
कितना इसका अधिकार है ! कितना इसका महत्त्व है ! परन्तु तुच्छ चीजोंकी इच्छा करता है, उनके मिलनेसे राजी होता है, उन चीजोंसे अपनी इज्जत मानता है, बेइज्जतीमें इज्जत मानता है ! कहाँ चली गयी अक्ल सारी ? इसमें जितनी शंकाएँ हों, आप पूछो ।
श्रोता‒शंका तो कोई नहीं, पर सामने जो राजा-महाराजा दीखते हैं...........!
स्वामीजी‒जो दीखता है, वह नाशवान् है । आप बताओ, कोई अविनाशी दीखता है क्या ? सामने सब नाशवान्-ही-नाशवान् दीखता है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, राज्य, पद, अधिकार आदि जो कुछ भी दीखता है, चाहे इन्द्रासन ही क्यों न दीखता हो, वह सब-का-सब नाशवान् है ।
श्रोता‒महाराजजी ! संगका असर पड़ता है । ऐसा कोई सामने देखनेमें नहीं आता,
जो सम्मान न चाहता
हो !
स्वामीजी‒मैं कहता हूँ आप मान लो । दूसरेको देखनेकी
जरूरत ही क्या है ! यह बात तो आप तब कह सकते हैं कि किसीको भोजन करते देखकर आपको भूख
लग जाय ! अगर दूसरेको देखनेसे असर पड़ता है, तो दूसरेको भोजन करते देखकर भूख लगनी चाहिये और दूसरेको भोजन करते न देखकर भूख
नहीं लगनी चाहिये । दूसरेको जल पीते देखकर प्यास लगनी चाहिये और दूसरेको जल पीते न
देखकर प्यास नहीं लगनी चाहिये ।
भेड़चाल संसार है, एक एक के लार ।
भिष्टा पर भागी फिरे, कैसे हो उद्धार ॥
यह तो भेड़चाल है कि दूसरा चाहे तो
मैं चाहूँ । दूसरा नरकोंमें जाय, तो फिर आप भी नरकोंमें पधारो ! क्या
यह मनुष्यपना है ?
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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