(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसके मनमें सम्मान आदिकी इच्छा है,
उसकी कितनी इज्जत है और जिसके मनमें सम्मान आदिकी इच्छा नहीं है, उसकी कितनी इज्जत है यह आपको दीखता है कि नहीं ? जिसके मनमें सम्मानकी, धनकी इच्छा नहीं है, जो कुछ भी नहीं चाहता, उसकी बेइज्जती हो सकती है क्या ? ‘जिनको कछू न चाहिये, सो साहनपति साह’ । लोग उसके आगे नतमस्तक हो जायँगे !
भगवान् श्रीराम हनुमानजीसे कहते हैं
कि तू धनिक है और मैं तेरा कर्जदार हूँ, तू मेरेसे खत लिखा ले ! जो ले तो ले, पर देनेके लिये पासमें हो नहीं, वही खत लिखाया करता है । भगवान् कहते हैं कि हे हनुमान्
! मैं तेरा बदला चुकानेमें असमर्थ हूँ, मैं दे नहीं सकता, इसलिये तू खत लिखा ले । मैं तेरा कर्जदार हूँ । कर्जदार
होनेमें कारण क्या है ? भगवान् इसका स्पष्ट उत्तर देते हैं‒
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत्
त्वयोपकृतं कपे ।
नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्
॥
(वाल्मीकि॰ उत्तर॰ ४० । २४)
तुमने जो मेरा उपकार किया है, यह कर्जा मेरेपर ही रहने दे । मैं कर्जा उतारना नहीं चाहता
। मैं तो सदा ही कर्जदार बना रहना चाहता हूँ । कारण कि जो उपकारका बदला चुकाना चाहता
है, वह विपत्ति चाहता है कि इसपर विपत्ति आये तो मैं इसका
उपकार करूँ, इसकी सहायता करूँ । तेरेको बाप घरसे
निकाल दे, स्त्रीको राक्षस ले जाय, साथ देनेवाला कोई नहीं हो, तब मैं तेरी सहायता करूँ ! अतः तेरेपर कभी विपत्ति आये
ही नहीं और मैं सदा ही तेरा कर्जदार बना रहूँ ! इस प्रकार अगर मनमें कोई भी चाहना न
हो, तो भगवान् ऋणी हो जायँ ! भगवान्
शंकरने रामजीकी सेवा करनेके लिये हनुमान्जीका ही रूप धारण क्यों किया ? उन्होंने सोचा
कि सेवा करनेके लिये बन्दरके समान कोई नहीं हो सकता; क्योंकि उसको न रोटी चाहिये, न कपड़े चाहिये, न मकान चाहिये; कुछ भी नहीं चाहिये । पत्ते खा ले, वृक्षोंपर रहे और कपड़ोंकी जरूरत नहीं
! छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा सब काम रामजीका करेंगे और लेंगे कुछ भी नहीं ।
जब राक्षसोंने सबको मूर्च्छित कर दिया, तो सबसे पहले जाम्बवान् जगे । जाम्बवान्ने जगते ही पूछा
कि हनुमान् जीवित हैं या नहीं ! यह नहीं पूछा कि रामजी जीवित हैं या नहीं । कितनी विलक्षण
बात है ! हनुमान्जी जीवित हैं तो सब जी जायँगे, चिन्ताकी कोई बात नहीं । इस प्रकार सबके प्राण हनुमान्जीके
अधीन हैं । परन्तु उनकी भी पोल बताऊँ आपको ! जब हनुमान्जी संजीवनी लानेके लिये चले, तब उन्होंने अपने बलका बखान किया कि अभी लेकर आता हूँ‒‘चला प्रभंजन सुत बल भाषी ।’ (मानस ६ । ५६ । १) । इससे क्या हुआ ? रातके समय प्यास लग गयी और कालनेमि राक्षससे ठगे गये, फिर संजीवनीका पता नहीं लगा और संजीवनी ले आये तो भरतजीका
बाण लगा ! परन्तु दिनके समय लंकामें आग लगा दी, तब प्यास नहीं लगी ! कारण क्या था ? जब लंकामें गये तो पहले रघुनाथजीको याद किया‒‘बार बार
रघुबीर संभारी’
(मानस ५ । १ । ३) ।
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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