(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारे छः दर्शन-शास्त्र हैं । उनमेंसे
एक शास्त्र है‒पातंजलयोगदर्शन । उसमें बताया है कि ‘हेय दुःखमनागतम्’ (२ । १६)‒जो दुःख आया नहीं है, पर आनेकी सम्भावना
है, वह दुःख त्याज्य है । अर्थात् उस दुःखसे हम बच सकते हैं
! जो दुःख भोग चुके, वह तो भोग ही चुके, उसका क्या किया जाय ? अभी जो दुःख भोग रहे हैं, वह भोगनेसे नष्ट हो जायगा । अब आगे
आनेवाले दुःखसे बचना चाहिये । उससे बचनेके लिये ही यह मानव-शरीर मिला है । इस मानव-शरीरमें
अगर हम सावधान रहें,
ठीक तरहसे आचरण करें और
मर्यादाके अनुसार चलें तो आगे दुःख नहीं होगा । आनेवाले दुःखसे बचनेके लिये आपका यह
स्थान बहुत बढ़िया है । अब आपके लिये सावधानीकी विशेष आवश्यकता है । जो बाहर गृहस्थमें
रहते हैं और अपनेको स्वतन्त्र मानते हैं, उनमें भी सावधानीकी पूरी आवश्यकता है । सावधानीके बिना
प्रमाद, आलस्य आदि तमोगुणी वृत्तियाँ
मिटेगी नहीं । हिंसा, प्रमाद, आलस्य, निरर्थक समय बर्बाद करना बहुत खराब चीज है । इसलिये आपलोगोंके लिये बहुत उचित बात
यह है कि सब-का-सब समय अच्छे काममें लगाये रखें ।
हरेक आदमीके लिये, वह साधु हो चाहे गृहस्थ हो, भाई हो चाहे बहन हो, पढ़ा-लिखा हो चाहे अपढ़ हो, मैं चार बातें कहा करता हूँ । उन बातोंको
काममें लायें तो बहुत लाभ होगा, जीवन शुद्ध बन जायगा । वे चार बातें
इस प्रकार हैं‒
(१) सबसे पहली बात है समयकी । हमारे पास जितना समय है, उस समयको अच्छे-से-अच्छे काममें, उत्तम-से-उत्तम काममें लगाये । समयको
बर्बाद न करे । ताश, खेल, चौपड़, सिनेमा, नाटक, खेलकूद (हाकी, क्रिकेट आदि खेलने) में जो समय जाता है, वह बर्बाद होता है । न तो उससे परमात्मा मिलते हैं और न संसारका कोई लाभ होता है
। हाँ, कई खेल ऐसे हैं, जिनसे शारीरिक व्यायाम होता है, स्वास्थ्य भी ठीक होता है; परंतु प्रायः निरर्थक समय जाता है । सिनेमा देखनेसे आँखें भी खराब होती हैं, धन भी नष्ट होता है, समय भी बर्बाद होता है और चरित्र भी
खराब होता है । खेल-तमाशोंमें उम्र बर्बाद हो जाती है ।
हमें जो समय मिला है, वह सीमित है, असीम नहीं है । जैसे घड़ीमें जितनी चाबी भरी हुई होती है, उतनी देर ही वह चलती है । चाबी समाप्त होते ही घड़ी बंद
हो जाती है । ऐसे ही हमारी श्वासरूपी घड़ी चलती है । श्वास खत्म होते ही मरना पड़ता है
। फिर कोई जी नहीं सकता । किसी बल, अधिकार, योग्यतासे जी जायँ या विद्वान् होनेसे
जी जायँ‒यह हाथकी बात नहीं । वे श्वास अगर निरर्थक कामोंमें खर्च होते हैं, पाप करनेमें और दुर्व्यसनोंका सेवन करनेमें खर्च होते
हैं तो यह महान् मूढ़ता है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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