(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२६) वह परमात्मा दूर-से-दूर
भी है और वह नजदीक-से-नजदीक भी है (१३ । १५)‒यह कैसे ?
नाशवान् पदार्थोंके संग्रह
और सुखभोगकी इच्छा करनेवाले तथा परमात्मासे विमुख मनुष्योंके लिये तो परमात्मा दूर-से-दूर
हैं, पर जो केवल परमात्माके ही
सम्मुख है,
जो सब जगह परमात्माको ही देखता
है, जिसके ज्ञानमें एक परमात्माके
सिवाय दूसरोंकी और अपने-आपकी भी कोई अलग सत्ता नहीं है, उसके लिये परमात्मा नजदीक-से-नजदीक हैं
।
(२७) वह परमात्मा स्वयं विभागरहित
होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्तकी तरह स्थित है (१३ । १६)‒यह कैसे ?
जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंके
नाम, आकृति, माप, तौल और मूल्य अलग-अलग होते हुए भी धातुरूपसे
सबमें एक सोना ही है, ऐसे ही परमात्मतत्त्व वस्तु, व्यक्ति आदिके अनेक रूपोंमें होता
हुआ भी तत्त्वसे एक ही है । जैसे मनोराज्यमें स्थावर-जंगम, जड़-चेतन आदि जो कुछ दीखता है, वह सब एक मन ही होता है, ऐसे ही एक परमात्मतत्त्व सृष्टिके अनेक
रूपोंमें दीखता है, पर अनेक होते हुए भी वह तत्त्वतः एक ही है ।
(२८) प्रकृतिमें स्थित पुरुष
ही भोक्ता बनता है (१३ । २१); शरीरमें स्थित होता हुआ भी पुरुष भोक्ता
नहीं बनता (१३ । ३१)‒यह कैसे ?
तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें
श्लोकमें तो जो प्रकृतिमें स्थित[1] है अर्थात् जिसने प्रकृति-(शरीर-)
के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है, वही प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है; और इकतीसवें श्लोकमें जो शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद
करके अपने स्वरूपमें स्थित हो गया है, वह शरीरमें रहता हुआ भी भोक्ता नहीं बनता
। तात्पर्य है कि इक्कीसवें श्लोकमें तो प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध जोड़े हुए पुरुषका
वर्णन है और इकतीसवें श्लोकमें शरीरके साथ सम्बन्ध तोड़े हुए पुरुषका वर्णन है ।
(२९) प्रकृतिमें स्थित (प्रकृतिस्थ:)
पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है (१३ । २१) धीर पुरुष सुख-दुःखमें सम तथा
स्वरूपमें स्थित (स्वस्थ:) रहता है (१४ । २४), तो जो प्रकृतिमें स्थित है, वह स्वरूपमें स्थित कैसे ? और जो स्वरूपमें स्थित है, वह प्रकृतिमें स्थित कैसे ?
वास्तवमें यह पुरुष प्रकृतिमें
स्थित है ही नहीं, प्रत्युत स्वतः अपने स्वरूपमें ही स्थित है । परन्तु जब यह अपनी
स्थिति प्रकृतिमें अर्थात् एक शरीरमें मान लेता है अर्थात् शरीरमें अहंता-ममता कर लेता
है, तब यह कर्ता-भोक्ता बन जाता
है, सुखी-दुःखी हो जाता है, इसपर शुभ- अशुभ कर्म लागू हो जाते हैं, यह जन्म-मरणमें पड़ जाता है । परन्तु जब
यह अपनी स्थिति प्रकृतिमें नहीं मानता, तब इसकी स्थिति स्वरूपमें ही होती है और
यह कर्ता-भोक्ता नहीं बनता, सुखी-दुःखी नहीं होता, इसपर शुभ-अशुभ कर्म लागू नहीं होते, यह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है ।
[1]यहाँ व्यष्टि शरीरमें स्थित
रहनेको ही ‘प्रकृतिमें स्थित’ कहा गया है; क्योंकि प्रकृति अर्थात् समष्टि शरीरमें
स्थित होकर कोई भोक्ता बनता ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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