(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२२) परमात्मा ‘ज्ञेय’ अर्थात् जाननेयोग्य है (१३ । १२); परमात्मा
‘अविज्ञेय’ अर्थात् जाननेका विषय नहीं है (१३ । १५)‒यह
कैसे ?
जानना दो तरहका होता है‒करण-निरपेक्ष
और करण-सापेक्ष । जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि करणोंके द्वारा नहीं जाना
जा सकता, वह करण-निरपेक्ष होता है और जो करणोंके द्वारा जाना जा सकता है, वह करण-सापेक्ष
होता है । परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् वह स्वयंके द्वारा ही
जाना जाता है, इसलिये वह ‘ज्ञेय’ है और वह करणोंके द्वारा जाननेमें नहीं आता, इसलिये वह
‘अविज्ञेय’ है ।
(२३) वह परमात्मा सम्पूर्ण
इन्द्रियों और उनके विषयोंको प्रकाशित करनेवाला है तथा वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित
है (१३ । १४)‒यह कैसे ?
जैसे एक-एक इन्द्रियसे एक-एक
विषयका ज्ञान होता है, पर मनको पाँचों इन्द्रियोंका, उनके विषयोंका और उन विषयोंमें एक-एक विषयमें
क्या कमी है,
क्या घटिया है, क्या बढ़िया है आदिका ज्ञान होता है अर्थात्
मन पाँचों इन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको प्रकाशित करता है । मनको ऐसा ज्ञान होते
हुए भी मनमें पाँचों इन्द्रियाँ नहीं हैं । ऐसे ही वह परमात्मा सबको, संसारमात्रको प्रकाशित करता है, पर वह इन्द्रियोंसे रहित है अर्थात् उस
परमात्मामें इन्द्रियाँ नहीं है ।
(२४) वह परमात्मा आसक्तिरहित
है और वह सबका भरण-पोषण करनेवाला है (१३ । १४)‒यह कैसे ?
जैसे माता-पिता अपनी संतानका
पालन-पोषण करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, पर करते हैं आसक्तिपूर्वक ही । ऐसे ही
परमात्मा सबका भरण-पोषण करता है, उनकी रक्षा करता है, पर करता है आसक्तिरहित होकर ही । तात्पर्य
है कि उस परमात्माकी किसीमें भी आसक्ति नहीं है, सबसे निर्लिप्तता है ।
(२५) वह परमात्मा गुणोंसे
रहित है और वह गुणोंका भोक्ता है (१३ । १४)‒यह कैसे ?
वह परमात्मा सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंको काममें लाता
है अर्थात् तीनों गुणोंको लेकर सृष्टि-रचना आदि सब कार्य करता है । अतः उसको गुणोंका
भोक्ता कहा गया है । परंतु उस परमात्माकी किसी भी गुणके साथ किञ्चिन्मात्र
भी लिप्तता नहीं होती, इसलिये उसको गुणोंसे रहित कहा गया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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