(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१९) सत् और असत् भी मैं ही
हूँ (९ । १९) उस परमात्माको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ( १३
। १२)‒यह कैसे ?
भगवान् जहाँ कार्य-कारणरूपसे
अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हैं, वहाँ कहते हैं कि सत् और असत् जो कुछ भी है, वह सब मैं ही हूँ, मेरे सिवाय कुछ भी नहीं
है । परंतु जहाँ ज्ञेय-तत्त्वका वर्णन करते हैं वहाँ कहते हैं कि उस तत्त्वको न सत्
कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है; क्योंकि उस तत्त्वका किसी शब्दके द्वारा
वर्णन नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि सगुणकी दृष्टिसे सब कुछ भगवान् ही हैं; निर्गुणकी दृष्टिसे वे न सत् कहे जा सकते
हैं और न असत् ही; और भक्तिकी दृष्टिसे सत् और असत् भी वे ही हैं तथा सत्-असत्से
परे भी वे ही हैं‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७) ।
(२०) मेरे भक्तका विनाश (पतन)
नहीं होता (९ । ३१), तू मेरा भक्त है (४ । ३); और यदि तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा
विनाश (पतन) हो जायगा (१८ । ५८)‒यह कैसे ?
यद्यपि भक्त भगवान्की बात
न सुने,
उनकी आज्ञाके विरुद्ध चले‒ऐसा
सम्भव नहीं हैं,
तथापि अगर वह भगवान्की बात
नहीं सुनेगा तो वह भगवान्का भक्त नहीं रहेगा अर्थात् भक्तपनसे छूट जायगा । फिर उसके
पतनको रोकनेवाला कौन है ? तात्पर्य है कि जबतक वह भगवान्का भक्त
है, तबतक उसका पतन हो तो नहीं
सकता;
परंतु जब वह भक्तपनको छोड़
देता है, अभक्त हो जाता है, तब उसका पतन हो जाता है ।
(२१) जन्म, मृत्यु, जरा और
व्याधिरूप दुःखको बार-बार देखना चाहिये (१३ । ८); कर्तव्य-कर्ममें दुःख देखनेवाले तथा
शरीरके भयसे कर्म छोड़नेवाले राजस मनुष्यको त्यागका फल नहीं मिलता (१८ । ८)‒यह कैसे
?
यहाँ विषय दो हैं । भोगोंमें
जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधिरूप दुःखको देखना वैराग्यमें हेतु है अर्थात् अभी भोग भोगेंगे
तो उसके परिणाममें बार-बार जन्मना-मरना पड़ेगा, शरीरमें रोग होंगे, वर्तमानमें भय और
चिन्ता होगी, परलोकमें दुर्दशा होगी‒इस प्रकार भोगोंमें दुःखको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य
हो जायगा । अतः भोगोंमें दुःख-दृष्टि जरूर करनी चाहिये । परंतु कर्तव्य-कर्ममें दुःख
देखना पतनमें हेतु है; अतः कर्तव्य-कर्ममें दुःख-दृष्टि कभी करनी ही नहीं चाहिये, प्रत्युत
कर्तव्य-कर्मको उत्साहपूर्वक तत्परतासे करना चाहिये । तात्पर्य है कि भोगोंमें राग
नहीं होना चाहिये और कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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