(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१६) यह सब संसार मेरेमें
अव्यक्तरूपसे व्याप्त है और सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं; परंतु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ और वे
प्राणी भी मेरेमें स्थित नहीं हैं, (९ । ४-५)‒ यह कैसे ?
जहाँ प्राणियोंकी स्वतन्त्र
सत्ता मानकर चलते हैं, वहाँ तो सब प्राणियोंमें भगवान् हैं और सब प्राणी भगवान्में
हैं । परंतु जहाँ प्राणियोंकी, संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानी जाती, वहाँ प्राणियोमें भगवान् नहीं हैं और भगवान्में
प्राणी नहीं हैं, प्रत्युत सब कुछ भगवान् ही हैं ।
(१७) मैं अव्यक्तरूपसे सब
जगह व्याप्त हूँ (९ । ४); भक्त भक्तिपूर्वक पत्र, पुष्प, फल आदि जो कुछ भी देता है, उसको मैं खा लेता हूँ (९ । २६); तो जो
अव्यक्त है,
उसका खाना-पीना कैसे ? और जो खाता-पीता है, वह अव्यक्त कैसे ?
‘पृथ्वी’ स्थूलरूपसे व्यक्त और गन्धरूपसे अव्यक्त
है । ‘जल’ नदी, ओले, बर्फ आदिके रूपसे व्यक्त और परमाणुरूपसे
(आकाशमें रहते हुए) अव्यक्त है । ‘तेज’ सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूपसे व्यक्त तथा दियासलाई,
काष्ठ आदिमें अव्यक्त है । इस प्रकार जब पृथ्वी, जल, तेज आदि भौतिक पदार्थ भी व्यक्त और अव्यक्त‒दोनों होते हैं, तो फिर भगवान् व्यक्त और अव्यक्त‒दोनों
होते हों,
इसमें आश्चर्य ही क्या है
? तात्पर्य है कि भगवान् अव्यक्तरूपसे
व्यापक भी हैं और भक्तोंके भावोंके अनुसार व्यक्त भी है; क्योंकि भगवान्का यह नियम है‒‘ये यथा
मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४ । ११) ।
(१८) भगवान् सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त
हैं (९ । ४);
भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके
हृदयमें अच्छी
तरहसे स्थित हैं (१५ । १५) तो जो सर्वव्यापक है, वह एक देश हृदयमें अच्छी
तरहसे स्थित कैसे ?
भगवान् तो सब जगह व्यापक, सबमें ओतप्रोत हैं ही, पर सब जगह, सब चीजोंमें भगवान्का अनुभव करनेके लिये
हृदयके समान
इतनी स्वच्छता नहीं है । हृदय स्वच्छ होनेपर हृदयमें भगवान्का अनुभव होता है और हृदयमें अनुभव होनेपर ‘भगवान् सब जगह हैं’‒इसका अनुभव हो जाता है । तात्पर्य है कि
जैसे तारमें सब जगह विद्युत् होनेपर भी लट्टू-(बल्ब-) के बिना प्रकाश नहीं होता, ऐसे ही भगवान्के सब जगह व्यापक होनेपर
भी हृदयके बिना उनका अनुभव नहीं होता । इसी आशयसे ‘मैं सबके हृदयमें अच्छी
तरहसे स्थित हूँ’ यह कहा गया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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