।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, शनिवार
अलौकिक प्रेम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्त्वगुण प्रकाशक और अनामय है, इसलिये उसको यहाँ ‘मङ्गल’ नामसे कहा गया है[1] परन्तु प्रकाशक और अनामय होनेपर भी वह सुख और ज्ञानके संगसे बाँधनेवाला होता है‒‘सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ’ (गीता १४ । ६) । ध्यानमें आये हुए श्रीकृष्णका मन-ही-मन आलिंगन करनेसे गोपियोंको जो विलक्षण सुख हुआ, उस सुखसे सत्त्वगुणसे होनेवाले सुखसंग और ज्ञानसंगका भी सुख मिट गया अर्थात् सात्त्विक सुख और सात्त्विक ज्ञानकी भी आसक्ति मिट गयी इस प्रकार जन्म-मरणका कारण जो तीनों गुणोंका संग है, वह सर्वथा नहीं रहा, जिसके न रहनेसे गोपियोंका गुणमय शरीर भी नहीं रहा ।

तत्वज्ञान शरीरके सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीरका नाश नहीं करता । कारण कि जीवन्मुक्त होनेपर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता । इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान होनेपर भी जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तबतक शरीर भी रहता है । अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञानका उपदेश कौन करेगा ? ब्रह्मविद्याकी परम्परा कैसे चलेगी ? परन्तु गोपियोंका विरहजन्य ताप इतना विलक्षण था कि उनका गुणसंग तो रहा ही नहीं गुणमय शरीर भी नष्ट हो गया ! उनके संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध‒तीनों एक साथ तत्काल (सद्यः) और सर्वथा क्षीण (प्रक्षीण) हो गये‒‘सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।’ इससे सिद्ध होता है कि ‘वियोग’ में बन्धन जल्दी छूटता है, पर ‘योग’ में देरी लगती है । वियोगमें योगसे भी विलक्षण आनन्द होता है ।

विरहका तीव्र ताप जन्म-मरणके मूल कारण गुणसंग (मूल अज्ञान)-को ही जला देता है । जो गोपियाँ वंशीवादन सुनकर भगवान्‌के पास चली गयी थीं, उनका वह अनादिकालका गुणसंग नष्ट नहीं हुआ; क्योंकि उनको वियोगजन्य तीव्र ताप नहीं हुआ । परन्तु जिनको वियोगजन्य तीव्र ताप हुआ, उनके लिये अनादिकालके गुणसंगसहित सम्पूर्ण जगत्‌की निवृत्ति हो गयी और वे सबसे पहले भगवान्‌से जा मिलीं । विरहके तीव्र तापसे उनका शरीर छूट गया और ध्यानजनित आनन्दसे वे भगवान्‌से अभिन्न हो गयीं । वे भगवान्‌से बाहर न मिलकर भीतरसे ही मिल गयीं, जो कि वास्तविक (सर्वथा) मिलन है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[1] गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है‒‘तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयन्’ (१४ । ६) और परमपदको भी अनामय कहा गया है‒‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्’ (२ । ५१) । दोनोंमें फर्क यह है कि सत्वगुण सापेक्ष अनामय है और परमपद निरपेक्ष अनामय है ।