।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, रविवार
साधकोंके प्रति-१३



(गत ब्लॉगसे आगेका)

सांसारिक पद, अधिकार आदि दोको भी एक समान नहीं मिलेगा; परन्तु पहले जो शुकदेव मुनि हुए, सनकादि हुए, ब्रह्माजी हुए, भगवान् शंकर हुए, जीवन्मुक्त ऋषि हुए, बड़े-बड़े ज्ञानी महापुरुष हुए, उनको जो तत्त्व मिला है, वही तत्व आज हरेक मनुष्यको मिल सकता है, मनुष्यमात्रको मिल सकता है । पर शर्त इतनी ही है कि सांसारिक सुख और संग्रहको नापसन्द कर दे कि हमें सांसारिक सुख और संग्रह लेना नहीं है । सांसारिक सुख आ जाय, संग्रह हो जाय तो क्या करे ? जैसे अनजानमें मैलेपर पग चला जाय, टिक जाय और पग मैलेसे भर भी जाय तो क्या करें ? तो स्नान करके साफ करो । ऐसे ही संसारका सुख-आराम मिले, रुपये, सोना, हीरे, रत्न मिलें तो समझे कि मैलेपर पग टिक गया । पर उसको हमें लेना नहीं है । हम तो केवल परमात्मतत्त्वको ही चाहते है । इसके सिवाय हमें कुछ भी लेना नहीं है‒यह अनन्य भक्ति है ।

मनुष्य-शरीर प्राप्त करके अगर धन प्राप्त कर लिया, भोग प्राप्त कर लिये, मान-बड़ाई प्राप्त कर ली, तो मनुष्य-शरीर निष्फल है । धन आदिमें ही अटक गये, यहाँकी चीजोंमें ही अटक गये तो क्या मनुष्य हुए ? मनुष्यपना क्या हुआ ? क्योंकि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है‒दुर्लभो मानुषो देहः ।’ सद्‌ग्रन्थोंमें यह मनुष्य-शरीर देवताओंके लिये भी दुर्लभ बताया है‒‘बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ॥’ ऐसे मनुष्य-शरीरको प्राप्त करके फिर केवल भोग भोग ले, रुपया इकट्ठा कर ले ! कितना कर लोगे ! अन्तमें सब किया हुआ उद्योग गुड़-गोबर हो जायगा, कुछ भी काम नहीं आयेगा । परन्तु मनुष्य उसीमें राजी हो रहे हैं कि हम यह ले लेंगे, वह ले लेंगे । क्या ले लोगे, यह कोई लेनेकी चीज है ? जिसके साथ आप नहीं रह सकते और आपके साथ वह नहीं रह सकती, इसको क्या तो लिया । धोखा हुआ है धोखा ! विश्वासघात हुआ और कुछ नहीं हुआ, वह भी जानकर आपने किया । आपने अपने ही पैरोंमें आप ही कुल्हाड़ी मारी । अतः सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु’ व्यर्थ छोड़कर उस सार चीजको, उस सत्य-तत्त्वको ग्रहण करना चाहिये, जिसका कभी अभाव नहीं होता । उसको प्राप्त होनेपर महासर्गमें भी पैदा नहीं होते तथा महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते; सदा मस्ती, सदा मौज-ही-मौज रहती है‒‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४ । २) । उस तत्त्वकी प्राप्ति इस शरीरके रहते-रहते थोड़े-से-थोड़े समयमें हो सकती है । उसकी प्राप्तिके लिये न किसी विद्याकी जरूरत है, न किसी योग्यताकी जरूरत है । केवल अपनी चाहनाकी जरूरत है । वह चाहना ऐसी होनी चाहिये कि मेरेको सांसारिक वस्तु आदि कुछ भी मिले, तत्त्वकी प्राप्ति किये बिना मैं उसमें ठहरूँगा नहीं । मेरेको तो वही चाहिये, दूसरा कुछ भी नहीं । अब ऐसी चाहना हो जायगी, ऐसी लगन लग जायगी तो आपको उसकी प्राप्तिकी सामग्री मिल जायगी, ग्रन्थ मिल जायगा, गुरु मिल जायगा, सब मिल जायगा । परमात्माके मौजूद रहते कौन-सी सामग्री बाकी रहेगी ? पर सब कुछ होते हुए भी मनुष्यको यह वहम रहता है कि थोड़ा यह काम कर लें, थोड़ा वह काम भी कर लें । यों थोड़ा करते-करते खत्म हो जाओगे भाई, मिलेगा कुछ नहीं ।
   
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे