साधक अगर ‘ऐसा
होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इन
दो बातोंको छोड़ दे और भगवान्की आज्ञाके अनुसार कार्य करता रहे तो उसके। भगवान्की
प्राप्ति हो जाय ! जिसको मुक्ति
कहते है, कल्याण कहते हैं, वह हो जाय ! रामायणमें आता है‒
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(७ । ४३ । ३)
बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभु अपनी तरफसे कृपा करके जीवको मनुष्य-शरीर
देते है । कृपाका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य अपना कल्याण कर ले । मनुष्यका कल्याण हो
जाय‒इस भावसे भगवान् मनुष्य-शरीर देते है । अतः भगवान्की
तरफसे तो इसके उद्धारका संकल्प हो गया । परन्तु मनुष्य ‘ऐसा
होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इस
बातको पकड़ लेता है और इसीसे बन्धनमें पड़ जाता है; और
इसीको कामना कहते हैं ।
गीताने जो कामना-त्यागकी बात कही है,
उसका तात्पर्य है कि ‘ऐसा हो जाय और ऐसा न हो जाय’‒ये दोनों छोड़ दें । इस तरह कामनाका त्याग करनेसे मनुष्यका संसारके
साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और भगवान्की कृपासे,
भगवान्के संकल्पसे इसका उद्धार हो ही जायगा‒यह निश्चित बात
है ।
प्रभु स्वाभाविक बिना कारण कृपा करते है,
किसी कारणसे नहीं‒‘बिनु
हेतु सनेही ।’
अतः भगवान्का यह संकल्प है कि मनुष्य अपना उद्धार कर ले । भगवान्का संकल्प सत्य होता है, नित्य
होता है और स्वतःसिद्ध होता है । इसलिये मनुष्यको अपने कल्याणके लिये कुछ भी करना नहीं
पड़ता । बस, केवल एक बात है कि मनुष्य अपनी आड़ नहीं लगाये अर्थात्
‘ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इसको
मिटा दे । फिर इसका कल्याण स्वतः हो जायेगा ।
ऐसा हो जाय और ऐसा न हो जाय‒इससे होता कुछ नहीं । कारण कि ‘ऐसा हो जाय’‒ऐसा चाहनेसे क्या ऐसा हो जाता है ?
और ‘ऐसा न हो जाय’‒ऐसा चाहनेसे क्या ऐसा नहीं होता ?
एक-एक भाई-बहन इसपर विचार करके देखें कि जैसा हम चाहें,
वैसा हो जाय और जो नहीं चाहें वह नहीं हो‒यह बात होती नहीं ।
अभीतक किसीके भी मनकी बात पूरी नहीं हुई तो अब कैसे हो जायगी ?
आपलोग अपना-अपना जीवन देख लें कि हमने जैसा चाहा,
वैसा हुआ है क्या ?
जो नहीं चाहा, वह नहीं हुआ है क्या ? आपकी उम्रभरका है ऐसा अनुभव ? अतः हमारे
चाहनेसे क्या होता है ? प्रभुकी प्राप्तिमें बाधा लगनेके सिवाय कुछ नहीं होता । जिसको
तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति, भगवत्प्रेम, भगवत्प्राप्ति, कल्याण, उद्धार कहते हैं, केवल उसमें बाधा लगती है और कुछ नहीं होता
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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