मनुष्य-शरीर विवेक-प्रधान है । विवेकका अर्थ होता
है‒सार और असारको, कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक जानना । उस विवेकको
काममें लें । मनुष्य विवेकको
काममें नहीं लेता, विवेकका विशेष आदर नहीं करता,
इससे मनुष्य दुःख पाता है । अगर विवेकको ठीक-ठीक मानकर उसके
अनुसार चले, तो वह निहाल हो जाय । इस विवेकको जाग्रत् करनेके लिये सत्-शास्त्र
हैं, सत्पुरुष हैं, गुरु हैं, माता-पिता आदि हैं । इनके ऊपर जिम्मेवारी है और ये विवेकको जाग्रत्
करते है । उस विवेकसे जाननेकी एक खास बात है,
उसपर आप ध्यान दें ।
साधारण दृष्टिसे रुपये बहुत बड़ी चीज दीखते हैं और हैं भी;
क्योंकि रुपयोंसे सब चीजें आती हैं । हम बहुत-सी चीजें रुपयोंसे
खरीद लेते हैं और उनसे हमारा काम चलता है । इस वास्ते जीवनके लिये रुपये बड़ी चीज दीखते
हैं ।
हम जो जी रहे हैं, यह जीना हमें बहुत अच्छा लगता है । दुःखी-से-दुःखी प्राणी भी
जल्दी मरना नहीं चाहता । अतः जीनेके लिये अन्न,
जल, वस्त्र आदि वस्तुएँ उपयोगी हैं । हमारा जीवन-निर्वाह हो जाय,
हमारे प्राण बने रहें‒इसके लिये वस्तुओंकी आवश्यकता है । उन
वस्तुओंके लिये ही रुपयोंकी आवश्यकता है । रुपयोंके लिये वस्तुओंकी आवश्यकता नहीं है
। हाँ, वस्तुओंसे रुपये पैदा हो सकते हैं; परन्तु
रुपयोंसे वस्तुएँ बहुत ऊँची हैं, जिनसे हमारा जीवन रहता है । वस्तुओंका उपार्जन होता
है । रुपये तो अन्न, वस्र आदि वस्तुओंके लेन-देनमें काम आते हैं । अतः
रुपयोंसे वस्तुएँ बहुत मूल्यवान् हैं ।
वस्तुओंसे भी बहुत मूल्यवान् हैं‒प्राणी, मनुष्य, पशु
पक्षी, वृक्ष । ये बहुत कामके हैं । इनके पालनसे ही हमें जीवनोपयोगी वस्तुएँ मिलती है । अतः जिनसे
जीवन चले, वे जीनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं । उन प्राणियोंके लिये ही वस्तुएँ
है । प्राणियोंमें भी मनुष्य श्रेष्ठ है; क्योंकि दूसरे जितने प्राणी हैं,
वे अपने पुराने कर्माके फल भोगते हैं और फल भोगकर शुद्ध होते
हैं । परन्तु मनुष्यमें दो बातें हैं‒एक तो पुराने पापों
और पुण्योंके फल भोगना और एक आगे अपने उद्धारके लिये काम करना । अनुकूल और प्रतिकूल
परिस्थितिका उपभोग करना और उनसे सुखी-दुःखी होना पशुओंमें भी है । सुख पानेका और दुःख
मिटानेका उद्योग पशु भी अपनी बुद्धिके अनुसार करते हैं । परन्तु आगे (भविष्यमें) क्या
होगा‒इसका ठीक तरहसे विचार करनेमें पशु-पक्षी समर्थ नहीं हैं पर मनुष्य समर्थ है ।
मनुष्य विवेक-प्रधान है, इस वास्ते हमारा हित किस बातमें है और अहित किस बातमें है ?
हमारा उत्थान किस बातमें है और पतन किस बातमें है ?
सार क्या है और असार क्या है ?
नित्य क्या है और अनित्य क्या है ?
सत्य क्या है और असत्य क्या है ?‒इन सब बातोंको जाननेकी योग्यता मनुष्यमें है,
पशु-पक्षियोंमें नहीं है । अतः मनुष्योंमें
भी विवेक मूल्यवान् है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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