(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो विवेकके अनुसार चलते है, वे
मनुष्योंमें श्रेष्ठ है । विवेक श्रेष्ठ है, इसलिये
विवेकका आधार लेकर चलनेवाले भी श्रेष्ठ है । विवेक किसलिये है ? विवेक
इसलिये है कि हितकारक काम करे और अहितकारक काम न करे, सारको
ग्रहण करे और असारका त्याग करे, इससे वर्तमानमें और भविष्यमें भी सुख हो, दुःख
न हो‒ऐसा काम करे ।
जब मनुष्य वस्तुओंका और रुपयोंका आदर ज्यादा करने लग जाते हैं,
तब यह विवेक दब जाता है । भगवान्ने गीतामें तीन तरहकी बुद्धि
बतायी है । जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको,
कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक जानती है,
वह सात्त्विकी होती है (गीता १८ । ३०) । जो बुद्धि धर्म और अधर्मको,
कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक नहीं जानती,
वह राजसी होती है (गीता १८ । ३१) । जो बुद्धि अधर्मको धर्म मान
लेती है और इस प्रकार सब चीजोंको उलटा ही मान लेती है,
वह तामसी होती है (गीता १८ । ३२) । सात्त्विकी बुद्धि थोड़े मनुष्योंमें
ही होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे मनुष्योंमें सात्त्विकी बुद्धि होती ही
नहीं । सात्त्विकी बुद्धिको ठीक-ठीक काममें लानेवाले मनुष्य थोड़े हैं । राजसी बुद्धिवाले
मनुष्य बहुत हैं । तामसी बुद्धिवाले मनुष्य तो इस कलियुगमें और भी अधिक हैं,
जिन्हें उलटा ही दीखता है । उलटा दीखना क्या हुआ ?
वस्तुओं और प्राणियोंसे भी बढ़कर रुपयोंको मान लिया । वे रुपयोंका
ही संग्रह करते हैं । रुपयोंके लिये झूठ, कपट करना पड़े, चोरी करनी पड़े, डाका डालना पड़े, मारपीट करनी पड़े, हत्या करनी पड़े तो वह भी करनेके लिये तैयार हो जाते हैं । रुपये
इकट्ठे करनेके लिये गायोंको भी मारने लगते हैं । यह बिलकुल तामसी बुद्धि है । रुपये कमाना और उनकी रक्षा करना तामसी नहीं है, किन्तु
सत्-असत्का, नित्य-अनित्यका हित-अहितका विचार छोड़कर झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी
आदि करके किसी तरहसे रुपये इकट्ठा करना महान् तामसी बुद्धि है । इससे क्या होगा रुपयोंका आदर ज्यादा होगा । इससे आगे चलकर रुपये
वस्तुओंके लिये नहीं रहते, अपितु संख्या बढ़ानेके लिये हो जाते है । हजार हो जाय तो लाख,
लाख हो जाय तो करोड़,
इस तरह अरबों-खरबों रुपये बढ़ते ही जायँ । वे यह नहीं सोचते और
न सोच ही सकते हैं कि इतने रुपये बढ़ाकर क्या करेंगे ? न अच्छे आचरणोंकी तरफ विचार है,
न व्यक्तियोंकी तरफ विचार है,
न वस्तुओंकी तरफ विचार है;
बस केवल रुपये कमाना और इकट्ठे करना ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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