(गत ब्लॉगसे आगेका)
विवेकसे भी ऊँचा है‒सत्य-तत्त्व । जो सत्य (परमात्मतत्त्व) की प्राप्तिमें लग जाते हैं, वे सबसे ऊँचे हो जाते है । सत्यकी तरफ चलनेवालेका सब आदर करते है । साधारण लोग भी आदर करते हैं, धनी लोग भी आदर करते हैं, ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा भी आदर करते हैं । और तो क्या, सत्यकी तरफ चलनेवालेका भगवान् भी आदर करते हैं । अतः सत्य सबसे बड़ा हुआ । उस सत्यकी प्राप्तिके लिये ही विवेक है, विवेकके लिये ही मनुष्य है, मनुष्योंके लिये ही वस्तुएँ हैं और वस्तुओंके लिये ही रुपये हैं । रुपये अधिक बढ़नेसे फायदा नहीं है, वस्तुओंके अधिक बढ़नेसे फायदा है ।
मनुष्य विवेकप्रधान है । उसके लिये यह विशेषरूपसे
उचित है कि वह विवेकका आदर करे और विवेकसे श्रेष्ठ जो सत्य-तत्त्व है, उसकी
प्राप्तिमें अपना समय लगाये, बुद्धि लगाये और उसीको प्राप्त करे; तो
फिर मरनेके बाद भी दुःख नहीं होगा । रुपये, वस्तु, व्यक्ति आदि सब यहीं रह जायँगे,
साथ नहीं चलेंगे पर सत्य पीछे नहीं रहेगा,
उसकी प्राप्ति हो जायगी और सदाके लिये शान्ति हो जायगी ।
जो सत्य-तत्त्व है,
उसीको परमात्मा कहते हैं । जो सर्वथा सत्य है,
जिसका कभी विनाश नहीं होता,
ऐसे अविनाशी तत्त्वको प्राप्त करना ही मनुष्यका खास ध्येय है,
लक्ष्य है । उसको प्राप्त कर लिया तो मनुष्यजन्म सफल हो गया
। अगर उसको प्राप्त नहीं किया तो मनुष्यजन्म सफल नहीं हुआ ।
खाना-पीना आदि तो कुत्ते, सूअर
और गधे भी करते हैं । इसकी कोई विशेष महिमा नहीं है । विशेष महिमा तो परमात्मतत्त्वको
प्राप्त करनेमें ही है, जिसमें हमारा और दुनियाका बड़ा भारी हित है । गोस्वामी तुलसीदासजी-जैसे जो अच्छे-अच्छे महात्मा हो गये हैं,
उन्होंने अपना भी कल्याण किया और दुनियाका भी कल्याण किया ।
उनकी वाणीसे आज भी दुनियाका कल्याण होता है । ऐसे उपकार कोई धनी-से-धनी व्यक्ति भी
नहीं कर सकता । अतः सत्यकी प्राप्तिका ही उद्देश्य मुख्य रहना चाहिये । रुपये भी सत्य
की तरफ लगें, वस्तुएँ भी सत्यकी तरफ लगें,
मनुष्य भी सत्यकी तरफ लगें और विवेक भी सत्यकी तरफ लगे,
तब तो उन्नति है । परन्तु परमात्माकी
परवाह न करके नाशवान् पदार्थोंकी परवाह की जाय और पदार्थोंसे भी अधिक रुपयोंको पैदा
करने और संग्रह करनेको महत्व दिया जाय, तब
तो पतन-ही-पतन है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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