(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह बड़े दुःखकी बात है कि लोग भगवान् और सन्त-महात्माओंसे भी
सांसारिक सुख माँगते है ! दान-पुण्यादि करके भी बदलेमें सांसारिक भोग चाहते हैं । परमात्मतत्त्वको बेचकर बदलेमें महान् दुःखोंके जालरूप संसारको खरीद
लेते हैं । यह महान् कलंककी बात है ! गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं‒
एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥
(मानस
७ । ४३ । १)
मूर्ख लोग अमृतको देकर बदलेमें जहर ले लेते हैं । परमात्मप्राप्तिके लिये मिले हुए इस मनुष्य-शरीरमें नाशवान् सांसारिक
पदार्थोंकी माँगका रहना बड़ी लज्जाकी बात है । यदि आप कहें कि इस माँगके बिना
हमसे रहा नहीं जाता तो आप आर्त होकर भगवान्से प्रार्थना करें कि हे प्रभो ! यह भोग-पदार्थोंकी
माँग हमसे मिटती नहीं है, अतएव आप ही इसे मिटा दें । यदि आपकी
यह प्रार्थना सच्ची होगी तो भगवान् अवश्य मिटा देंगे । परन्तु आप तो भोग-पदार्थोंमें
और उसकी माँगमें रस लेते है, उनमें प्रसन्न होते है, आपकी मिटानेकी इच्छा ही नहीं
है, फिर माँग मिटे कैसे ?
भगवान्के समान कोई भी नहीं है । अर्जुन भगवान्से कहते हैं‒
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
(गीता ११
। ४३)
‘हे अनुपम प्रभाववाले प्रभो ! तीनों लोकोंमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है ।’
ऐसे सर्वोपरि भगवान्को प्राप्त करनेके लिये हमारे भीतर उत्कट
अभिलाषा होनी चाहिये । वे कितने मधुर हैं । जब वे हाथोंमें वंशी लेकर त्रिभंगीरूपमें
खड़े होते हैं तो कितने प्यारे लगते हैं । उनमें कितना आकर्षण है ! कितनी प्रियता है
! साधक यदि थोड़ा भी उनका ध्यान करे तो विह्वल हो जाय । उसकी वृत्ति संसारकी तरफ जा
ही न सके ।
‘नारायन’
बिना मोल बिकी हों याकी नैक हसन में ।
मोहन
बसि गयो मेरे मन में
।
वे प्रभु यदि थोड़ा-सा भी मुस्करा दें तो आपका सब कुछ समाप्त
हो जायेगा; शेष कुछ भी नहीं बचेगा । आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा । प्रेम,
ज्ञान, मुक्ति आदिका उसके सम्मुख कोई मूल्य नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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