प्रश्न‒जब भगवत्प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है तो फिर
भगवत्प्राप्ति कठिन क्यों दीखती है ?
स्वामीजी‒भोगोंमें आसक्ति रहनेके कारण । भगवत्प्राप्ति कठिन
नहीं है, भोगोंकी आसक्तिका त्याग कठिन है ।
प्रश्न‒भगवत्प्राप्ति कठिन कहें अथवा भोगासक्तिका त्याग कठिन
कहें, बात तो एक ही हुई ?
स्वामीजी‒नहीं, बहुत बड़ा अन्तर है । भगवत्प्राप्तिको कठिन माननेसे साधक श्रवण,
मनन, जप, स्वाध्याय आदिमें ही तेजीसे लगेगा और भोगासक्तिके त्यागकी तरफ
ध्यान नहीं देगा । वास्तवमें भगवान् तो प्राप्त ही हैं,
केवल संसारके सम्बन्धका त्याग करना है ।
प्रश्न‒भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे है ?
स्वामीजी‒भगवान् नित्यप्राप्त हैं । वे प्रत्येक देश,
काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति और घटनामें परिपूर्ण हैं । उनकी प्राप्ति जड़ता (शरीर-संसार)-के
द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है । परन्तु नाशवान् संसारकी तरफ
दृष्टि रहनेसे, नाशवान् सुखकी आसक्ति रहनेसे नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव
नहीं होता । यह जानते हैं कि शरीर-संसार नाशवान् हैं,
फिर भी इस जानकारीको आदर नहीं देते ! वास्तवमें ‘शरीर-संसार
नाशवान् हैं’‒इसको सीख लिया है, जाना नहीं है । इसलिये नाशवान् जानते हुए भी सुख-लोलुपताके कारण
उसमें फँसे रहते हैं । वास्तवमें नित्यनिवृत्तकी निवृति करनी है और नित्यप्राप्तकी
प्राप्ति करनी है ।
प्रश्न‒नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति और नित्यप्राप्तकी प्राप्ति
करना क्या है ?
स्वामीजी‒नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति करनेका तात्पर्य है‒जो नित्यनिवृत्त
है, उस शरीर-संसारको रखनेकी भावना छोड़ना अर्थात् वह बना रहे‒इस इच्छाका त्याग करना
। नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करनेका तात्पर्य है‒जो नित्यप्राप्त है,
उस परमात्मतत्वको श्रद्धा-विश्वासपूर्वक स्वीकार करना ।
जो कभी भी अलग होगा,
वह अब भी अलग है और जो कभी भी मिलेगा,
वह अब भी मिला हुआ है । शरीर,
वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य ‘नित्यनिवृत्त’
अर्थात् सदा ही हमसे अलग हैं और परमात्मा ‘नित्यप्राप्त’
अर्थात् सदा ही हमें प्राप्त हैं । जो तत्त्व सब जगह ठोस रूपसे
विद्यमान है, वह हमसे दूर हो सकता ही नहीं । परमात्मा कभी हमसे अलग हुए नहीं,
हैं नहीं, होंगे नहीं और हो सकते नहीं;
क्योंकि उसीकी सत्तासे हम सत्तावान् हैं ।
‒‘लक्ष्य
अब दूर नहीं’ पुस्तकसे
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