परमात्मतत्त्व नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । नित्य-निरन्तर
विद्यमान कहना भी वास्तवमें कालकी सत्ताको लेकर है । वास्तवमें कालकी सत्ता नहीं है
। सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है । उसकी सत्तासे ही जो असत् (‘नहीं’)
है, उस शरीर-संसारकी सत्ता दीख रही है‒
जासु सत्यता तें जड़
माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
(मानस, बाल॰ ११७ । ४)
बिना विचार किये ऐसा दीखता है कि हम जी रहे हैं अर्थात् शरीर
बढ़ रहा है, पर थोड़ा विचार करनेपर बिलकुल प्रत्यक्ष दीखता है कि शरीर निरन्तर
मर रहा है । वास्तवमें मर रहा नहीं है, प्रत्युत केवल मरना ही है ! गीतामें आया है‒‘नासतो
विद्यते भावः’ (२ । १६) ‘असत्की सत्ता विद्यमान नहीं है ।’ जैसे, वृक्ष उत्पन्न हुआ दीखता है तो वास्तवमें उत्पन्न नहीं हुआ है
। बीज मर गया, उसीको उत्पन्न होना कह दिया । तात्पर्य
है कि पहली अवस्थाको छोड़ना मृत्यु है और दूसरी अवस्थाको प्राप्त होना जन्म है । कोई
भी अवस्था नित्य नहीं रहती । अतः जन्म-मरणके प्रवाहमें केवल मरना-ही-मरना मुख्य
है । वस्तु, व्यक्ति, किया, सामर्थ्य, योग्यता आदिके रूपमें जो संसार दीख रहा है,
उसका नित्य-निरन्तर वियोग (अभाव) हो रहा है । यह वियोग एक क्षण
भी बन्द नहीं होता । जैसे गंगाजीका प्रवाह निरन्तर समुद्रमें
जा रहा है, ऐसे ही संसारका प्रवाह निरन्तर अभावमें, प्रलयमें जा रहा है । सब शरीर निरन्तर मौतमें जा रहे हैं । हमारे
कहनेमें तो देरी लगती है, पर मरनेमें देरी नहीं लगती ! इसलिये संसारको मौतका सागर कहा है‒‘मृत्युसंसारसागरात्’ (गीता
१२ । ७) । इस मरने-ही-मरनेके
भीतर ‘है’ रूपसे एक अमर तत्त्व स्वतः-स्वाभाविक विद्यमान है,
जिसका कभी किसी अवस्थामें अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता
२ । १६) । उसी अमर तत्त्वको
हमें प्राप्त करना है और मरनेसे अलग होना है । वास्तवमें
जिसको प्रात करना है, वह हमें प्राप्त ही है और जिससे अलग होना है वह अलग
ही है ।
जो ‘नहीं’ है, उससे अलग हो जानेका नाम भी योग है‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) और जो ‘है’ उसमें तल्लीन हो जानेका नाम भी योग है‒‘समत्वं
योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । भगवान् कहते हैं कि तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा‒‘मच्चित्तः
सर्वदुर्गाणि मत्मसादात्तरिष्यसि’ (गीता १८ । ५८) और मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्रास हो जायगा‒‘मत्प्रसादादवाप्नोति
शाश्वतं पदमव्ययम्’ (गीता १८ । ५६) । अतः तर जाना भी योग है और प्राप्त हो जाना भी योग है । इसमें केवल नाशवान् सुखका आकर्षण ही बाधक है । सुख तो रहेगा नहीं, पर
उसकी लोलुपता हमारा पतन कर देगी । इस सुख-लोलुपताका हमें त्याग करना है । फिर तत्त्वमें
हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
|