(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक मार्मिक बात है कि ‘है’ को देखनेसे शुद्ध ‘है’ नहीं दीखेगा, पर ‘नहीं’ को ‘नहीं’-रूपसे देखनेपर शुद्ध ‘है’ दीखेगा ! कारण कि ‘है’ को
देखनेमें मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो ‘है’ के
साथ ‘नहीं’
(वृत्ति) भी मिला
रहेगा । परन्तु ‘नहीं’
को ‘नहीं’-रूपसे देखनेपर वृत्ति भी ‘नहीं’ में
चली जायकी और शुद्ध ‘है’ शेष रह जायगा; जैसे‒कूड़ा-करकट दूर करनेपर उसके साथ झाड़ूका भी त्याग हो जाता
है और मकान शेष रह जाता है । तात्पर्य है कि ‘परमात्मा सबमें परिपूर्ण है’‒इसका मनसे चिन्तन करनेपर,
बुद्धिसे निश्चय करनेपर वृत्तिके साथ हमारा सम्बध बना रहेगा
। परन्तु ‘संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है’‒इस प्रकार संसारको अभावरूपसे देखनेपर संसार और वृत्ति‒दोनोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और भावरूप शुद्ध परमात्मतत्त्व स्वतः शेष रह जायगा । इसलिये
परमात्माकी प्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है; क्योंकि
मूलमें अभावरूप संसारका निषेध ही करना है । संसारका निषेध कर दें तो नित्यप्राप्त परमात्माका
अनुभव स्वतः-स्वाभाविक हो जायगा ।
वास्तवमें ज्ञान ‘नहीं’ का ही होता है । ‘है’ का ज्ञान नहीं होता;
क्योंकि वह तो स्वतः रहता है । ‘नहीं’ को
‘है’ मान लिया‒यह अज्ञान है और ‘नहीं’ को
‘नहीं’
जान लिया‒यह ज्ञान है । ज्ञान होते ही ‘नहीं’ मिट जाता है और ‘है’ रह जाता है । इसलिये साधकमें हर समय
स्वाभाविक ही यह जागृति रहनी चाहिये, चेत
रहना चाहिये कि संसार नहीं है । जैसे, गृहस्थोंके घरमें लड़के भी पैदा होते हैं और लडकियाँ भी । लड़केके
पैदा होनेपर यह ज्ञान स्वतः रहता है कि यह इस घरमें रहनेवाला है और लड़कीके पैदा होनेपर
यह ज्ञान स्वतः रहता है कि यह इस घरमें रहनेवाली नहीं है । इस ज्ञानके लिये अभ्यास
नहीं करना पड़ता । इसी तरह शरीर और संसार प्रतिक्षण जा रहे
हैं‒यह ज्ञान स्वतः रहना चाहिये ।
जैसे भीतरमें यह बात बैठी हुई है कि लड़की अपने घर जायगी,
यहाँ नहीं रहेगी, ऐसे ही भीतरमें यह बात बैठनी चाहिये कि संसार तो जायगा,
यहाँ नहीं रहेगा । जानेवालेसे क्या मोह करें ?
अतः इस संसाररूपी लड़कीको भगवान्के
अर्पित कर दें; क्योंकि भगवान्के समान दूसरा कोई योग्य वर मिलेगा
नहीं । फिर हमारा कल्याण स्वतः-सिद्ध है । वास्तवमें संसारका सम्बन्ध भगवान्के साथ ही है क्योंकि यह भगवान्की ही अपरा
प्रकृति[*] है । हमने ही इसको
भगवान्से अलग मानकर अपना सम्बन्ध इसके साथ जोड़ लिया है‒‘जीवभूतां
महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) ।
‘नहीं’
को ‘है’ रूपसे माने बिना कोई मनुष्य भोग और संग्रह कर ही
नहीं सकता । अभावको भावरूपसे माने बिना कोई अनर्थ, पाप
कर ही नहीं सकता । सभी अनर्थ अभावको सत्ता देनेसे ही होते हैं । अतः ‘नहीं’ को ‘है’ मान लेना ही सम्पूर्ण अवगुणोंका,
सम्पूर्ण दुःखोंका,
सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्तिका मूल कारण है । असत्को सत्ता देना ही मूल अवगुण है, जिससे
सम्पूर्ण अवगुण पैदा होते हैं । असत्को सत्ता हमने ही दी है, इसलिये इसको हमें ही मिटाना है । असत्की स्वतन्त्र
सत्ता मिटनेपर सत्-तत्त्वको लाना नहीं पड़ेगा,
प्रत्युत उसका अनुभव स्वतः-स्वाभाविक हो जायगा;
क्योंकि वह तो पहलेसे ही विद्यमान है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(गीता
७ । ४)
'पृथ्वी,
जल, तेज,
वायु आकाश‒ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली
मेरी यह अपरा प्रकृति है ।’
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