(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम गृहस्थका त्याग कर दें,
रुपयोंका त्याग कर दें शरीरका त्याग कर दें तो आवश्यकताकी पूर्ति
हो जायगी‒ऐसी बात नहीं है । आवश्यकताकी पूर्ति इनकी इच्छाका
त्याग करनेसे होगी । गृहस्थ बना रहे,
रुपये बने रहें, शरीर बना रहे, मान-बड़ाई बनी रहे‒यह असम्भव है । असम्भवकी इच्छा कभी पूरी होगी
ही नहीं, प्रत्युत इच्छा करते हुए मर जायँगे और जन्म-मरणके चक्करमें वैसे
ही पड़े रहेंगे । इच्छाकी कभी पूर्ति नहीं होगी और आवश्यकताका कभी त्याग नहीं होगा ।
कारण कि इच्छा शरीर (जड़) को लेकर है और उसका विषय नाशवान् है तथा आवश्यकता स्वयँ (चेतन)
को लेकर है और उसका विषय अविनाशी है । अतः चाहे इच्छाका त्याग कर दें तो योग सिद्ध
हो जायगा‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’
और चाहे आवश्यकताकी पूर्ति कर लें तो योग सिद्ध हो जायगा‒‘समत्वं
योग उच्यते’ । जड़ताका त्याग भी योग है और समताकी प्राप्ति भी योग है । जड़ताके
त्यागसे चिन्मयताकी प्राप्ति हो जायगी और चिन्मयताकी प्राप्तिसे जड़ताका त्याग हो जायगा
। दोनों एक साथ कभी रहेंगे नहीं ।
जैसे पानीसे भरा हुआ घड़ा हो तो उसको खाली करना है और उसमें आकाश
भरना है‒ये दो काम दीखते हैं । पर वास्तवमें दो काम नहीं हैं प्रत्युत एक ही काम है‒घडे़को
खाली करना । घडे़मेंसे पानी निकाल दें तो आकाश अपने-आप भर जायगा । ऐसे ही संसारकी कामनाका त्याग करना और परमात्माकी आवश्यकता पूरी
करना‒ये दो काम नहीं हैं । संसारकी कामनाका त्याग कर दें तो परमात्माकी आवश्यकता अपने-आप
पूरी हो जायगी । केवल संसारकी इच्छासे ही परमात्मा अप्राप्त हो रहे हैं ।
जीव, जगत् और परमात्मा‒ये तीन ही वस्तुएँ हैं । जीव क्या है ?
मैं जीव हूँ । जगत् क्या है ?
यह जो दीख रहा है, यह जगत् है । परमात्मा क्या है ?
जो जीव और जगत् दोनोंका मालिक है,
वह परमात्मा है । जीव और जगत्का तो विचार होता है,
पर परमात्माका विचार नहीं होता,
प्रत्युत विश्वास होता है । कारण कि विचारका विषय वह होता है, जिसके
विषयमें हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते । जिसके विषयमें कुछ नहीं जानते, उसपर
विचार नहीं चलता । उसपर तो विश्वास ही किया जाता है । अतः विचार करके जगत्का त्याग
करना है और श्रद्धा-विश्वास करके परमात्माको स्वीकार करना है । जड़ताका त्याग करनेमें कोई भी परतन्त्र नहीं है;
क्योंकि जड़ता विजातीय है ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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