(गत ब्लॉगसे आगेका)
कामनाओंके त्यागसे आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है‒यह नियम है
। कामनाका त्याग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं । कामना किसीमें भी निरन्तर नहीं रहती,
प्रत्युत उत्पन्न-नष्ट होती रहती है । परन्तु आवश्यकता निरन्तर
रहती है । हमें सत्ता चाहिये तो नित्य सत्ता चाहिये, ज्ञान चाहिये तो अनन्त ज्ञान चाहिये,
सुख चाहिये तो अनन्त सुख चाहिये‒यह सत्-चित्-आनन्दकी आवश्यकता
हमारेमें निरन्तर रहती है । निरन्तर न रहनेवाली कामनाको तो
हम पकड़ लेते हैं, पर निरन्तर रहनेवाली आवश्यकताकी तरफ हम ध्यान ही नहीं देते‒यह हमारी
भूल है ।
अगर हम कामनाओंका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी
अथवा परमात्माकी प्राप्ति कर लें तो कामनाओंका त्याग हो जायगा । इन दोनोंको ही गीताने
‘योग’ कहा है‒
तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
(६ । २३)
‘जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।’
समत्वं योग उच्यते ।
(२ ।
४८)
‘समत्व ही योग कहा जाता है ।’
तात्पर्य है कि जड़ताका त्याग करना भी योग है और चिन्मयतामें
स्थित होना भी योग है । दुःखरूप संसारसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘दुःखसंयोग’ है । दुःखोंका घर होनेसे संसार ‘दुःखालय’ है‒‘दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता
८ । १५) । जैसे पुस्तकालयमें
पुस्तकें मिलती हैं, वस्त्रालयमें वस्त्र मिलता है,
भोजनालयमें भोजन मिलता है,
ऐसें ही दुःखालयमें दुःख-ही-दुःख मिलता है । दुःखालयमें सुख
ही नहीं मिलता, फिर आनन्द तो दूर रहा ! परन्तु परमात्मामें आनन्द-ही-आनन्द है‒‘यं लब्ध्वा
चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः’ (गीता ६ । २२) । ऐसे महान् आनन्दकी ही हमें आवश्यकता है, जिसकी पूर्तिके
लिये ही हमें यह मनुष्यजन्म मिला है ।
मनुष्य अनन्तकालतक जन्मता-मरता रहे तो भी उसकी आवश्यकता मिटेगी
नहीं और कामना टिकेगी नहीं । बाल्यावस्थामें खिलौनोंकी कामना होती है,
फिर बड़े होनेपर रुपयोंकी कामना हो जाती है,
फिर स्त्री-पुत्र, मान-बड़ाई आदिकी कामना हो जाती है । इस प्रकार कोई भी कामना टिकती नहीं, बदलती
रहती है, पर आवश्यकता कभी मिटती नहीं, बदलती
नहीं । उस आवश्यकताकी पूर्तिके लिये
ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग ध्यानयोग आदि साधन हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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