(गत ब्लॉगसे आगेका)
अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है और जाती है इनका आदर करनेसे सत्की तरफसे विमुखता हो जाती है पर अभाव
हो जायगा क्या ? अभाव नहीं होता । यह जो अपना निर्णय है न कि यह हरदम रहता है अखण्ड, अभाव नहीं
होता । यह जो अपना निर्णय हरदम रहता है, अखण्डरूपसे । कितनी विचित्र बात है यह ! स्वतः-सिद्ध
बात है यह । इसमें कोई नयी बात नहीं हुई । अभी मेरे कहनेसे कोई नयी बात सीख गये हो,
ऐसी बात नहीं है । पहले लक्ष्य नहीं था,
इधर लक्ष्य हो गया । जैसे,
हमने देखा यह माइक दीखता है । पहले माइककी तरफ न देखना हुआ,
पर माइकका कोई अभाव थोड़े ही था । उसे देखा और दीखने लग गया ।
इसी तरहसे यह ‘है’ तत्त्व है ज्यों-का-त्यों ही
था, पहले भी, अब भी है और अगाड़ी भी रहेगा । पहले,
अभी, अगाड़ी‒यह काल-भेद हुआ । सत्में तो भेद नहीं हुआ ।
घटना, परिस्थिति, दशा‒इनमें परिवर्तन हुआ,
इनमें फर्क पड़ेगा; परन्तु ‘है’ में क्या फर्क पड़ेगा ? उसमें फर्क सम्भव ही नहीं है । कोई जन्मे,
कोई मरे, नफेमें, नुकसानमें, आनेमें, जानेमें उसमें क्या फर्क पड़ता है
? उसमें बिना किये स्वतः स्थिति
है । ‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ अपने ‘स्व’ में स्थिति है तो सुख-दुःख आवे तो क्या ? इनमें समान रहें,
मान-अपमानमें समान रहें,
निन्दा-स्तुतिमें समान रहें । ‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’
पत्थरमें, मिट्टीके ढेलेमें, सोनामें क्या फर्क है
? इन सबमें ‘है’ में क्या फर्क हुआ
? जीनेमें और मरनेमें क्या फर्क
हुआ ? शरीर बीमार हुआ और स्वस्थ हुआ तो क्या फर्क हुआ
? संयोग और वियोगमें क्या फर्क
हुआ ? ठीक दीखता है न ! ‘है’ ज्यों-का-त्यों है बस । इतनी-सी बात है, लम्बी-चौड़ी नहीं है
। पूर्ण हो गये एकदम । ‘है’ की तरफ दृष्टि रहे ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
असत्की तो सत्ता ही नहीं है, असत्की सत्ता होवे तो हटे । अब
सत्का अभाव नहीं तो कैसे हटे ? ‘है’ ज्यों-का-त्यों है परिपूर्ण,
सम, शान्त, स्वतः-सिद्ध है । इसका कोई ध्यान नहीं करना है,
चिन्तन नहीं करना है । ध्यान-चिन्तनमें भी वैसा ही है । चिन्तन
छूट गया तो भी वैसा ही है । ध्यान लगे तो भी है, ध्यान नहीं लगे
तो भी है । वृत्ति लग गयी तो भी है, नहीं लगी तो भी है । इसमें
क्या फर्क पड़ा ? ठीक है न ! बस, यही बात है । केवल उधर लक्ष्य करना
है और कुछ करना नहीं है । कोई निर्माण नहीं करना है, न चिन्तन करना है, न समाधि
लगाना है, न ध्यान लगाना है । ‘है’ ज्यों-का-त्यों
है बस । क्या करना बाकी रहा ? कैसी मौजकी बात है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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