(गत ब्लॉगसे आगेका)
है सो सुन्दर है सदा नहीं सो सुन्दर नाय ।
नहीं सो परगट देखिये है सो दीखे नांय ॥
अब दीखे कैसे ? वह तो देखनेवाला है, उसके प्रकाशमें सब है । वह स्थिर है ज्यों-का-त्यों
है । ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
॥’ ‘तस्मादेवं विदित्वैनम्’‒इसको ठीक तरहसे जान ले तो शोक नहीं हो सकता,
चिन्ता नहीं हो सकती । चाहे प्रलय हो जाय,
चाहे घरवाले एक साथ ही सब मर जाये । क्या फर्क पड़े ? सब धन चला
जाय तो क्या फर्क पड़े ? और धन आ जाय बहुत-सा तो क्या फर्क पड़े ? क्या समझे,
बोलो महाराज ! अब इसमें कोई जोर आवेगा क्या
? यह जो कहा जाता है कि इस तत्त्वकी
प्राप्तिमें कोई परिश्रम नहीं है, इसके समान सुगम कोई है ही नहीं,
यह सच्ची है कि झूठी
? बताओ ! इससे सुगम काम है कोई
? आप बताओ ! आप कठिन कहते थे
। हृदयसे बताओ कि इसमें कोई कठिनता है क्या
?
श्रोता‒लगती तो नहीं है ।
पू॰ श्रीस्वामीजी‒जब
लगती नहीं है तो फिर क्यों मेहनत पकड़ो ? लगती ही नहीं तो जबर्दस्ती क्यों पकड़ो ?
श्रोता‒लगनकी कमी है महाराजजी !
पू॰ श्रीस्वामीजी‒लगनकी
कमी कैसे हुई ? अब क्या कमी रही लगनकी ? लगनकी जरूरत नहीं,
यह तो है ही यों ही ।
श्रोता‒स्वामीजी ! ये माननेपर भी अनुकूलता-प्रतिकूलतामें एक
शान्ति-अशान्ति होती है, यह तो महसूस होती रहती है ।
पू॰ श्रीस्वामीजी‒अशान्ति
और शान्ति दोनों दीखती है कि नहीं ? यह बताओ ! उस दीखनेमें शान्ति और अशान्ति कहाँ है
? शान्तिका भी ज्ञान होता है
और अशान्तिका भी ज्ञान होता है । शान्ति और अशान्ति दो तरहकी
है, पर ज्ञान भी दो तरहका है क्या ? भेद
है तो उस ज्ञानमें, जो प्रकाशित होता है उसमें भेद है, पर प्रकाशमें
क्या भेद है ? बोलो !
श्रोता‒यह समझमें नहीं आती ।
पू॰ श्रीस्वामीजी‒समझमें
आना और नहीं आना‒यह दीखता है कि नहीं ? यह बताओ आप ! ये दोनों एक ही जातिके हैं । जिस
प्रकाशमें समझमें आना दीखता है और नहीं आना दीखता है वह तो ज्यों-का-त्यों ही हुआ न,
क्यों भाई ? जो समझमें आयी,
वह भी दीख रहा है और नहीं आयी,
वह भी दीख रहा है । देखनेवाला तो ज्यों-का-त्यों ही है । समझने-न-समझनेसे
क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि समझने-न-समझनेसे उसका कोई सम्बन्ध
ही नहीं है ।
‘पायो री मैंने रामरतन धन पायो ।’
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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