साधकको चाहिये कि वह अपनी अवस्थाकी तरफ देखे ही नहीं,
केवल साधनमें तत्परतासे लगा रहे । एक तो यह दृष्टि है और दूसरी
दृष्टि यह है कि हमारा कितना सुधार हुआ और कितना बाकी रहा ? ऐसा विचार करके चलता रहे
। इन दोनोंमें विरोध मालूम देता है, विरोध है भी । जब अपनेको सन्देह हो,
तब कितना सुधार हुआ और कितना नहीं हुआ,
यह देखना आवश्यक है । जहाँ सुधार नहीं हुआ है,
उधर ही दृष्टि डालनी चाहिये । इतना हो गया,
ऐसा करके सन्तोष नहीं करना चाहिये और जो बाकी रह गया है,
उसके लिये घबराना नहीं चाहिये । उत्साहपूर्वक काम करना चाहिये
। अपनेको तत्परतासे कर्तव्यकर्म-साधनमें लगाये रखे ।
जैसे गीताने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’
कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं । इस वास्ते
कर्मके फलका हेतु भी मत बन और अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो । यह बहुत श्रेष्ठ और ऊँची
बात है ।
मेरा साधन इतना ही बना,
ऐसी ऊँची स्थिति मेरी नहीं हुई है । इस प्रकार देखनेसे एक बड़ी
भारी गलती होती है । वह यह होती है कि अपने शरीर,
इन्द्रिय, अन्तःकरणपर ममता हो जाती है । अहंता और ममता, जिनका त्याग करना
है, उनका त्याग न होकर अहंता-ममता दृढ़ हो जाती है । नहीं तो अपने अन्तःकरण और शरीर,
इन्द्रियोंमें ही क्यों खोज करता है
? खोज करनी है तो सब जगह करे
। सब जगह नहीं करे तो एक जगह क्यों करता है ? एक जगह खोज करनेसे इनकी ममता बनी रहती
है और ममता जबतक बनी रहती है, तबतक साधन बढ़िया नहीं होता । ममता और अहंता ही बाधक हैं
। इस वास्ते साधन कितना हुआ और कितना नहीं हुआ
? यह खयाल ही नहीं करे । अपने
तो एक परमात्म-तत्त्वमें ही लगा रहे । अपनी स्थिति देखते
रहनेसे अहंता, ममता,
परिच्छिन्नता, एकदेशीयपना‒यह
मिटेगा नहीं । जबतक यह नहीं मिटेगा, तबतक वास्तविक स्थिति होगी नहीं । इस वास्ते अपने तो बस देखे ही नहीं कि कितना बना,
कितना नहीं बना ! अपने द्वारा कोई गलती तो नहीं हो रही है न
? शास्त्रसे,
मर्यादासे विरुद्ध तो नहीं कर रहा हूँ । इतना खयाल रखते हुए
ठीक तरहसे करता रहे ।
मनुष्य प्रायः करके अपनी वृत्तियोंकी तरफ देखता है कि हमारी
वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं । अभी तो फुरणा नहीं मिटी,
हमारे तो राग-द्वेष नहीं मिटे,
मनकी चंचलता नहीं मिटी । ऐसा देखनेसे एक बड़ी गलती होती है कि
वह अन्तःकरणकी स्थितिको अपनी स्थिति मानता है । वास्तवमें
अन्तःकरणकी स्थिति अपनी स्थिति नहीं है । अपनेको तो अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद करना
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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