अन्तःकरणकी वृत्तियाँ ठीक हों,
तब तो ठीक हुआ और वृत्तियाँ ठीक नहीं हैं तो बेठीक हुआ‒यह मानना
गलती है । कारण कि अन्तःकरणकी वृत्तियों तो बदलती रहती हैं । बहुत ऊँची अवस्था होनेपर
भी बदलती हैं और ऊँची अवस्था होनेपर ही नहीं,
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर अर्थात् तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त हो जानेपर
भी पुरुषके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ तो बदलती रहेंगी । हाँ, उनकी वृत्तिमें निषिद्ध फुरणा
नहीं होगी । शास्त्र-विपरीत कोई चेष्टा नहीं होगी;
परन्तु अन्तःकरणकी वृत्तियाँ तो बदलेंगी ही । बदलना तो इनका
स्वभाव है । बदलनेवालेसे अपनेको सम्बन्ध-विच्छेद करना है
। इस तरफ ही खयाल करें कि इससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । यह अच्छी हो,
मन्दी हो, अपनेको वृत्तियोंसे कोई मतलब नहीं । हमें इससे कोई लेना-देना
नहीं । वृत्तियाँ होती हैं तो अन्तःकरणमें होती हैं,
ठीक-बेठीक होती हैं तो अन्तःकरणमें होती हैं,
अन्तःकरण मैं नहीं हूँ ।
‘समदुःखसुख स्वस्थः’
‘स्व’ में स्थित रहे । अपनेमें कोई विकार नहीं है । एक सच्चिदानन्दघन
है, ज्यों-का-त्यों है । आप तो वही रहते हो,
ऊपरसे भाव बदलता है, क्रिया बदलती है,
अवस्था बदलती है, दशा बदलती है,
परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है;
परन्तु इन सम्पूर्ण बदलनेको देखनेवाले
आप तो नहीं बदलते हो । अपनेमें परिवर्तन कहाँ होता है
? अपनेमें अगर परिवर्तन होता
तो अवस्थाओंका भेद कैसे मालूम होता है ? अवस्थाओंमें भेद तो उसको मालूम होगा,
जो अवस्थाओंमें स्थित नहीं है,
अवस्थाओंसे अलग है,
उसीको भेद मालूम देगा । जो अलग है, उसमें कोई भेद नहीं मालूम
होता । परिवर्तन प्रकृति और प्रकृतिके कार्यमें होता है,
वह परिवर्तन हरदम होता ही रहता है । वह परिवर्तन मिटेगा नहीं । अपने साथ इनका कोई सम्बन्ध
नहीं है । ऐसा अनुभव करनेसे ही वास्तवमें अपना काम होगा ।
इसीको गीतामें कहा है‒‘गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला
ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता’
(गीता ३ । २८) और ‘जो पुरुष
सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है, वही यथार्थ
देखता है’ (गीता १३ । २९) । ‘जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त किसीको
कर्ता नहीं देखता’ (गीता १४ । १९) । ‘तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी निस्सन्देह
ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ (गीता ५ । ८) । सम्पूर्ण क्रियाएँ होते हुए भी अपना कोई सम्बन्ध
नहीं है इनके साथ । ‘गुणोंका संग ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्मका कारण है’ (गीता १३ ।
२१) । वह अपना किया हुआ है और अपने मिटानेसे ही मिटेगा,
मिटानेका दायित्व अपनेपर ही है । जबतक इसके साथ सम्बन्ध मानता
रहेगा, ठीक और बेठीक मानता रहेगा,
तबतक सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे