प्रश्न‒अन्तःकरणकी
निर्मलता लक्ष्य नहीं है क्या ?
उत्तर‒अन्तःकरणकी निर्मलता वास्तवमें स्वयंकी कसौटी नहीं है । अन्तःकरणकी निर्मलता और
अन्तःकरणकी मलिनता‒ये दोनों दृश्य हैं । मलिनता भी दृश्य है और निर्मलता भी दृश्य है
। स्वयं द्रष्टा है, इस वास्ते इन्हें दृश्य समझकर अपनेको अलग मानेगा तो इनकी बहुत
जल्दी शुद्धि हो जायगी । इनकी शुद्धिपर ज्यादा ध्यान देगा
तो जल्दी शुद्धि नहीं होगी । ममता मिटेगी नहीं । ममता ही मल है‒‘ममता मल जरि जाय ।’
साधक इस बातको ठीक समझता है, यह सिद्धान्त भी अच्छा समझता है;
परन्तु ऐसे खयाल नहीं होता है कि ऐसे देखनेसे ममता दृढ़ होती
है । इस कारण विशेष ध्यान देता है कि देखो,
मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हुईं । वृत्तियाँ तो एक-सी रहती ही
नहीं कभी । बदलनेका आपको ज्ञान होता है, बदलना आपसे अलग होता है, वह दृश्य है और आप
दृष्टा हो । बदलनेवाली चीज आपके जाननेमें आती है, फिर उसको
अपना क्यों मानते हो ?
थोड़ी बारीक बात है पर बढ़िया बात है कि जीवन्मुक्ति
स्वतः ही है । जो स्वाभाविक मुक्त होता है, वही मुक्त हो सकता है, बद्ध
मुक्त नहीं हो सकता । बद्ध होता
है, वही मुक्त होगा, मुक्त है वह क्या मुक्त होगा ? समझ गये न ! अपनेको बद्ध मानता
है, तब वह मुक्त होता है । इस वास्ते बद्ध ही मुक्त होता है और यदि वास्तवमें बद्ध
ही है तो वह मुक्त कैसे होगा ? सत्का अभाव नहीं होता । सत्यका अभाव होगा ही नहीं ।
तो बात क्या है ? कि बद्धपनेकी मान्यता है, उसे मिटानी है
। अब मिटानी चाहो तो अभी मिटा दो, चाहे वर्षोंके बाद मिटा दो और चाहे जन्मोंके बाद मिटा दो,
ये सब दृश्य है । मनुष्य स्वाभाविक ही मुक्त है, यह मुक्तिका
अधिकारी है पूरा, एकदम । जिस किसी हालतमें है, जिस किसी परिस्थितिमें है, जैसी
कैसी दशामें है, उस दशाके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े,
क्योंकि दशा बदलती रहती है और आप नहीं बदलते हैं । सम्बन्ध है तो नहीं, जोड़े
नहीं बस, मुक्त स्वतः है ही ! सम्बन्ध जोड़ता है, तब बद्ध होता
है । सम्बन्ध जोड़ने और न जोड़नेमें पराधीन नहीं है, अयोग्य नहीं है, निर्बल
नहीं है, अनधिकारी नहीं है । मनुष्य अगर अनधिकारी है तो मुक्तिका अधिकारी कौन होगा
? इस वास्ते यह सम्बन्ध न जोड़े
बस । अब इसमें शंका हो तो बोलो !
प्रश्न‒स्वामीजी
! आचरण कैसा ही हो, द्रष्टा
बना देखता रहे ?
उत्तर‒देखो ! कैसे ही आचरण हो, यह नहीं कह सकते । उस अवस्थामें यह कहा जा सकता है कि आचरणोंको
लेकर आप राजी और नाराज क्यों होते हो ? यहाँ दृढ़ रहो, आचरण कैसा ही हो,
यह नहीं । अपने राजी और नाराज कैसे होते हो ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे