(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒आचरण
ठीक नहीं है, तब तो नाराजी होनी
ही चाहिये न ?
उत्तर‒होनी चाहिये, तब तो फँसे ही रहोगे । आप राजी और नाराज क्यों होवो ? दोनोंको
ही छोड़ो, अच्छेको भी और मन्देको भी छोड़ो । वास्तवमें तो किसीके साथ आपका
सम्बन्ध नहीं है । दोनोंको छोड़ दोगे तो मन्दा होगा ही नहीं । स्वतः अच्छा ही होगा ।
जो बुरा है, उसको अच्छा मानोगे तो अच्छा कभी नहीं होगा,
क्योंकि ममता उसके साथ बनी रहेगी । यह ममता ही तो बुराई है ।
यह थोड़ी बारीक बात है, लेकिन साधकके लिये खास बात है । साधकको
द्रष्टा नहीं रहना चाहिये, उपेक्षा करनी चाहिये । द्रष्टा बना रहेगा तो गलती
है, बिलकुल उपेक्षा करे, उधरसे आँख मीच ले । अपने तो एक परमात्म-तत्त्व है, उसपर दृष्टि रखे । अच्छे और
मन्देपर दृष्टि क्यों रखे ?
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुख बन्धात्मज्यते ॥
(गीता ५ । ३)
सुनहु तात माया कृत गुन अरु
दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअ देखिअ सो अबिबेक ॥
दोनोंको देखनेवाले द्रष्टाको अविवेकी बताया । यह बात साधकके कब्जेमें आ जाय, अधिकारमें आ जाय तो बहुत बढ़िया चीज है ।
प्रश्न‒कब्जेमें
आ जानेका प्रभाव तो फिर इन वृत्तियोंके द्वारा ही देखा जायगा ?
उत्तर‒ना, वृत्तियोंके द्वारा नहीं देखना है,
वृत्तियोंकी उपेक्षा करनी है । वृत्तियोंके द्वारा देखोगे,
तबतक तो कब्जेमें नहीं आयी है । जबतक वृत्तियोंके द्वारा देखकर
कसौटी लगाते हैं, तबतक मैं कहता हूँ वह बात अधिकारमें नहीं आयी है । वह स्थिति नहीं
हुई है । वृत्तियोंको लेकर कसौटी नहीं लगानी चाहिये । वृत्तियाँ
सब-की-सब प्रकृतिमें हैं, पर आप प्रकृतिके अंश नहीं हो, आप
परमात्माके अंश हो । इस वास्ते आपको परमात्माकी तरफ देखना है, वृत्तियोंकी तरफ नहीं
देखना है । ‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’
यह प्रकृति है । असली बात समझमें आ जाय तो वहाँ कोई कसौटी नहीं
लगेगी । कसौटी यही है कि इनसे कोई मतलब नहीं है, न राग है,
न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक
है; न ठीक है, न बेठीक है; न अनुकूलता
है, न प्रतिकूलता है । एक वही है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे |