मेरे मनमें एक बात विशेषतासे आती है कि हम यह जानते हैं कि शरीर,
कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदि ये सब उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । सदा हमारे साथ
रहते नहीं, रहेंगे नहीं और रहना सम्भव नहीं है फिर भी ‘ये हमारे साथ रहेंगे’
ऐसी धारणा बना रखी है,
जो बिलकुल गलती है । ये सब एकदम नष्ट हो रहे हैं,
प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं । जितना
दृश्य जगत् है, वह सब अदृश्य हो रहा है । दीखनेवाले सब न दीखनेमें जा रहे हैं । भावरूपसे
दीखनेवाला संसार अभावमें जा रहा है । ‘है’ रूपसे दीखनेवाले सब ‘नहीं’
में जा रहे हैं, फिर भी इनको साथ रखना चाहते हैं । इनके साथ रहना चाहते हैं ।
ये हमारे साथ रहें । जो मिला हुआ है, वह बना रहे तथा नया और मिल जाय‒ये दो प्रकारकी
इच्छा है । यह कहाँतक उचित है बताओ ? जो रहनेवाली नहीं है,
उसकी इच्छा करना, उसकी प्राप्तिके लिये समय लगाना,
उसके लिये ही सोचना कि धन मिल जाय,
कुटुम्ब मिल जाय, मान मिल जाय, बड़ाई हो जाय आदि-आदि पता नहीं,
कितनी लाइन लगा रखी है ? यह ठीक है क्या
? यह सुधार कब करेंगे
? किस दिनके लिये बाकी छोड़ा है,
कब करोगे यह विचार ?
बड़ी विचित्र बात है ! हम यह सुनते हैं,
समझते हैं, जानते हैं, मानते हैं कि ये रहनेवाले नहीं हैं फिर भी इनमें
ही आकृष्ट होते हैं । तो केवल इनका जो आकर्षण है, उसको मिटाना
है और कुछ नहीं करना है, फिर सब ठीक हो जायगा । आकर्षणमें फायदा कोई-सा भी नहीं है और नुकसान सब तरहका है ।
आकर्षण रखनेसे पराधीन हो जाते हैं । ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’
आकर्षण कैसे मिटे ? इनको दूसरोंकी सेवामें लगावें, दूसरोंको
सुख पहुँचावें । यह भाव बना लें
कि सबको सुख कैसे हो ? सबको आराम कैसे मिले ? सबके लाभ कैसे हो
? सबका हित कैसे हो
? यह सोचते रहें‒‘सर्वभूतहिते रताः’
हमारी रति, प्रीति सबके हितमें हो जाय । अगर प्रीति
ऐसी है कि हमारे लाभ हो जाय, हमारे संग्रह हो जाय, हमारा
मान हो जाय तो यहाँ ही घाटा है । यह भाव बदल दें, यह खास चीज है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति
सहज है’ पुस्तकसे
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