(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारेसे जो वैर-विरोध रखें,
उनका भी भला कैसे हो ? उनको शान्ति कैसे मिले ? उनको लाभ कैसे
हो ? उनका हित कैसे हो ? उनका कल्याण कैसे हो
? यह सोचो । हमारा भाव ऐसा होना
चाहिये । बड़ा भारी लाभ है इसमें । अन्तःकरण बहुत जल्दी निर्मल होता है । किसीका भी
अहित सोचनेसे अपना अन्तःकरण मैला होगा और कर कुछ नहीं सकोगे । हमारे करनेसे कुछ हो
जाय यह बात है नहीं । आप किसीका अहित सोचकर अहित नहीं कर
सकते और हित सोचकर हित नहीं कर सकते; क्योंकि
उनका सांसारिक हित-अहित उनके भाग्यके अनुसार होगा । हमारा भाव अगर दूसरोंका हित करनेका
होगा तो हमारा कल्याण जरूर हो जायगा । हमारा भाव यदि दूसरोंके अहितका होगा तो हमारा
पतन जरूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । कुछ नहीं कर सकेंगे,
सिवाय इसके कि हम अपना कल्याण कर सकते हैं और अपना पतन कर सकते
हैं ।
सर्पाणां च खलानां च परद्रव्यापहारिणाम् ।
अभिप्राया न सिद्ध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥
सर्पोंका, दुष्टोंका, चोरोंका, डाकुओंका अभिप्राय सिद्ध नहीं होता । इसीसे यह संसार बरत रहा
है । नहीं तो संसारको चौपट कर दें । चोर और डाकू किसीके पास धन रहने देंगे क्या ? पर
उनका मनोरथ सिद्ध नहीं होता । आप कितना हित कर लोगे ! कितना अहित कर लोगे ! कुछ नहीं
कर सकोगे । हित करके दुनियाको निहाल कर दो यह बात नहीं है । आपका भाव हित करनेका होगा
तो आप निहाल हो जाओगे और आपका भाव अहित करनेका होगा तो आपका नुकसान हो जायगा । किसीके
पास आपसे ज्यादा धन है तो आप उसे मिटा तो सकते नहीं तो क्यों जलन होने दो मनमें
? यह मुफ्तमें आग क्यों लगाओ
?
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्
॥
ऐसा भाव रखो तो आपके क्या नुकसान है
? अन्तःकरण निर्मल हो जाय मुफ्तमें,
बड़ा भारी फायदा होगा । बड़े-बड़े यज्ञ,
दान, तीर्थ,
तप आदि करनेकी अपेक्षा ऐसे भावसे अन्तःकरण निर्मल
जल्दी होगा । भीतरका मैलापन जल्दी दूर होगा । बड़े-बड़े शुभ कर्मोंसे इतनी जल्दी नहीं होगा,
पर आपको तो क्या है कि जब किसी सुखीको दुःखी देखते हैं,
तब आपको चैन पड़ता है । बोलो कितना नुकसान है ! यह कितनी खराब
बात है ! आप मुफ्तमें पापके भागी होते हैं और मिलना कुछ नहीं है । कोरा अन्तःकरण मैला
कर लो भले ही । भाव गिराकर अपना पतन करना है । बाजारमें भाव गिर जाते हैं तो घाटा लग
जाता है और भाव तेज होनेसे मुनाफा हो जाता है ।
हमने एक बात सुनी कि एक बार एसेम्बली (विधानसभा) में बात हुई
कि ये जितने धनी हैं, ये सब निर्धन कैसे हों ? तो कहा गया कि इनपर टेक्स लगाओ । टेक्स-पर-टेक्स
लगाओ, जिससे किसी तरह ये धनी लोग निर्धन हो जायँ । यह बात जब बीकानेर
दरबारने सुनी तो वे बोले कि तुम भावना करते हो कि सब धनी निर्धन कैसे हो जायँ ? भावना
ही करो तो अच्छी करो, ‘सभी निर्धन धनी कैसे हो जायँ’‒यह भावना करो । ऊन्धी (उलटी)
भावना क्यों करते हो ! अरे, मनके लड्डू बनाये जायँ तो उनमें मीठा कम क्यों डालो
? इसमें कौन-सा खर्चा लगता है
! भगवान्से भी यही कहो कि महाराज ! सब सुखी हो जायँ,
कोई दुःखी न रहे । अब भगवान् करें या न करें,
भार उनपर है । आपका काम तो हो ही गया । किसीका भी अहित न हो
। अहित तो हमारे वैरीका भी न हो । वह चाहे हमारे साथ वैर रखे,
पर उसका भी हम अहित नहीं चाहेंगे‒‘सर्वभूतहिते
रताः’ आप और हम ऐसा कर सकते हैं कि नहीं
? बोलो भाई ! भाव कर सकते हैं
। मैं भावका ही कहता हूँ । चीज वस्तु तो इतनी कहाँसे दोगे
? और दोगे भी तो कितनी दोगे
? लाखों, करोड़ों
और अरबों रुपये हों तो भी सीमित ही होंगे, पर
भाव असीम है । भावसे कल्याण होता है,
वस्तुसे नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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