(गत ब्लॉगसे आगेका)
नफा वस्तुमें नहीं, नफा भावमें
होय ।
भाव बिहूणा परसराम बैठा पूँजी खोय ॥
भावमें स्वतन्त्रता है तो अपने भावमें कमी क्यों
रखो भाई ?
उमा संत की इहइ बड़ाई ।
मंद करत जो करहि भलाई ॥
अपने तो भलाई करनेका भाव रखो । होना-करना हाथकी बात नहीं है
। पर भाव गिराकर, किसीके अहितका भाव करके अपना अन्तःकरण क्यों मैला करें
? प्राणिमात्रके हितमें रति होनी
चाहिये । अहित करनेवालोंको नरक और चौरासी लाख योनि होगी मुफ्तमें । वहाँ न तो हित कर
सकोगे और न अहित कर सकोगे तो मुफ्तमें क्यों नरकोंमें जाओ । हमें जो कुछ शरीर, वस्तु
पदार्थ आदि मिले हैं, उनके द्वारा सबकी सेवा करो, सबको
सुख पहुँचाओ, ऐसा भाव होगा तो ये स्वाभाविक दूसरोंकी सेवामें खर्च
होंगे ।
प्रश्न‒महाराजजी
! जानते हैं कि भलाई करे, अच्छी
है लेकिन पता नहीं, यह
बुराई किस चोर दरवाजेसे आ जाती है ?
उत्तर‒यह तो सुखकी इच्छा है, इससे मनुष्य बुरा काम कर बैठता है । उसीसे अशान्ति होती है ।
जो अशान्त होता है, वही अशान्ति पैदा करता है । दुःखी होता है, वही दुःख देता है
। सुखी होता है, वह
किसीको दुःख नहीं दे सकता । इनके कारण ही दुःख देनेकी भावना होती है । कोई भी मनुष्य
दूसरेका अनर्थ कर ही नहीं सकता,
जबतक अपना अनर्थ पूरा न कर ले । अपना अनर्थ करके
ही दूसरेका अनर्थ करता है; परन्तु सुखकी इच्छाके कारण मनुष्यका अपने अनर्थकी
तरफ खयाल ही नहीं जाता । वह समझता
है कि मैं दूसरेका अनर्थ नहीं करता हूँ । आप स्वयंतक तो न सांसारिक हित पहुँचता है,
न अहित पहुँचता है । आप दूसरेका हित करें तो भी वह उसके स्वयं वहाँतक हित पहुँचता ही
नहीं । केवल आपको लाभ और हानि होती है ।
प्रश्न‒सुख-दुःख
किसे कहते हैं और इनकी निवृत्ति कैसे हो ?
उत्तर‒देखो, एक मार्मिक बात है कि वास्तवमें सुख-दुःख हैं नहीं
। हमारे मनके अनुकूल हो जाय तो सुख हो गया और मनके विरुद्ध हो गया तो दुःख हो गया । बाकी कुछ है नहीं सुख-दुःख ! ये हमारे बनाये हुए हैं । एक कुम्हार
था, उसके दो लड़कियाँ थीं । उन दोनोंका पासके गाँवमें विवाह कर दिया था । एक लड़कीके
खेतीका काम था और दूसरीके मिट्टीके बर्तनका काम था । एक दिन कुम्हार लड़कियोंसे मिलनेके
लिये गया । पूछा, ‘बेटी, क्या ढंग है ?’ ‘पिताजी, खेती सूख रही है । अगर पाँच-दस दिनोंमें वर्षा नहीं हुई तो फिर
कुछ नहीं होगा ।’ दूसरी लड़कीके यहाँ गया और पूछा तो वह कहने लगी ‘पिताजी ! बर्तन
बनाकर सूखनेके लिये रखे हैं, अगर दस-पन्द्रह दिनमें वर्षा हो गयी तो सब मिट्टी हो जायगी ।’
अब रामजी क्या करें बताओ ? एकके वर्षा होनेसे सुख है और एकके
वर्षा होनेसे दुःख है । जिसके वर्षा होनेसे सुख है उसके वर्षा न होनेसे दुःख है तो
यह सुख-दुःख अपने बनाये हुए हैं । वर्षा हो जाय अथवा वर्षा न हो‒यह हमारे हाथकी बात
तो है नहीं । फिर क्यों सुखी-दुःखी होते हो
? जो हो जाय, उसमें
प्रसन्न रहो । जो होना होगा, वह होकर रहेगा ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
|