(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒संयोगकालमें
वियोगको स्वीकार करना भी तो अभ्यास है ?
उत्तर‒ना ! अभ्यास नहीं है, बिलकुल नहीं है । संयोगकालमें वियोगकाल स्वीकार करना है,
स्वीकार करना अभ्यास नहीं होता । अभ्याससे भूल नहीं
मिटती, भूलको को भूल समझा कि मिट जायगी । उसके लिये अभ्यास
नहीं करना पड़ेगा । किसी आदमीको
नहीं पहचाना तो पूछते है कि ‘भाई ! कौन है ?
हम जानते नहीं ।’ कहता है ‘अमुक हूँ,
अमुक हूँ ।’ ‘अच्छा, अब पहचान लिया ।’ इसमें अभ्यास करना पड़ा क्या ?
छोरी, कन्याकी सगाई करते हो तो अभ्यास करते हो क्या कि मैंने
छोरी दी या छोरी अभ्यास करती है ? एक माला भी जपती है कि ‘हमारी सगाई हो गयी,
हमारी सगाई हो गयी ।’
अच्छा, आप ब्याहे हुए इतने बैठे हो,
ब्याहकी एक माला भी फेरी है क्या ?
अभ्यास किया है क्या ?
बोलो । अभ्यासकी साधना दूजी होती है । स्वीकृति अस्वीकृतिकी
साधना दूजी होती है । स्वीकृति होती है, वह
तत्काल होती है, सदा रहती है । अभ्यास किया हुआ बिगड़ जाता है । अब उसको अभ्यासजन्य मान लिया
आपने । इस वास्ते कभी होता है और कभी नहीं होता है । मूलमें गलती हो गयी । थोड़ा सोचो
! गहरा विचार करो, यह साधु हो गया तो उसने अभ्यास किया क्या साधु होनेका ?
बताओ ! अब मानने लग गये कि हमारे गुरुजी है तो गुरुजी माननेके
लिये अभ्यास किया क्या ? यह साधना और है अभ्यासकी साधना दूजी है । और बोधकी साधना,
ज्ञानकी साधना दूजी है । दोनों साधना अलग-अलग है,
पर यह मानते ही नहीं ।
यह जो मेरी बातें आपको अच्छी लगती है,
उनमें क्या बात है ?
कि मैं वास्तविकताकी बात बताता हूँ,
जो स्वीकार करनेमात्रसे हो जाय । यह सुगमता आपको अच्छी तो लगती है, पर
आपके मनमें यह जँची हुई है कि अभ्यास करनेसे ही होगा, ऐसे
नहीं होगा । अब आपने यह पकड़
लिया, हम क्या करें ? अभ्यास होनेसे दूजी अवस्था बनती है । ध्यान देना एक मार्मिक
बात है ।
अभ्यास करो जो तो दूजी अवस्था बनेगी,
अवस्था छोटी-बड़ी भले ही हो,
पर बोध नहीं होगा । अभ्याससे बोध हुआ
ही नहीं, कभी होगा ही नहीं । बोध हो सकता ही नहीं कभी । अभ्यास
करते-करते अन्तमें वास्तविकताको स्वीकार करनेसे ही बोध होगा और स्वीकार करोगे तभी संसारका
सम्बन्ध-विच्छेद होगा, अभ्याससे नहीं होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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