(गत ब्लॉगसे आगेका)
उसके साथ मैं और मेरेपनका व्यवहार कैसे करें ?
नाटकमें करें ज्यों करो बड़ी शुद्धिसे । बड़े सतर्क होकर,
सावधानीके साथ करो । इसको सच्चा मान लिया,
यह बिलकुल गलतीकी बात है । यह तो स्वाँग पहना हुआ है खेलनेके
लिये । इसे ही वास्तविक मान लिया । जैसे हरिश्रन्द्र बना,
शैव्या बनी, रोहिताश्व बना और वह खेल समाप्त हुआ । जो शैव्या बना,
उसको वह कहे कि तू तो मेरी रानी है,
चल मेरे साथमें । ‘अरे,
मैं रानी तो क्या, मैं तो स्त्री भी नहीं हूँ । मैं तो पुरुष
हूँ ।’ ‘गवाह है हजारों आदमी । तू तो मेरी रानी है ।’
हजारों देखते है तो खेलनेवाला क्या रानी हो गयी ?
अब पुरुष भी स्त्री कैसे हो गयी ! ‘मैं राजा हूँ तू रानी है
। मेरा बेटा है यह ।’ अरे भाई ! यह तो बना है,
खेल है, अवास्तविकता है । अब इसको ही वास्तविकता मान लिया । ‘मेरी रानी
है, मेरा बेटा है’ गलती कर दी न ! यह तो खेल है वास्तवमें । इस तरहसे संसार भी
खेल है । वो खेल भी बिगाड़ना नहीं है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, साधु, गृहस्थ, स्त्री, पुरुष
सबको ठीक ढंगसे व्यवहार कर बराबर शास्त्रकी आज्ञामें चलना है । खेल होता है, उसकी पुस्तकें होती हैं कि इस तरहसे खेलो । ऐसे ही हमारी पुस्तकें
है कि ऐसे व्यवहार करो । क्षत्रियका यह कर्तव्य है,
वैश्यका यह कर्तव्य है,
शूद्रका यह कर्तव्य है,
स्त्रियोंका यह धर्म है,
पुरुषोंका यह धर्म है,
साधुओंका यह धर्म है,
गृहस्थीका यह धर्म है; उन पुस्तकोंके अनुसार खेल खेले बढ़िया
रीतिसे । पर हैं क्या ?
है तो परमात्माके, परमात्मा हमारे है । संसारका यह शरीर है,
शरीरका संसार है । कुटुम्ब,
धन सब संसारका है, संसारके काम आ जाय,
तो अच्छी बात; क्योंकि यह आपका नहीं है तो आपके पास रहेगा कैसे ?
रहेगा नहीं । कोरी अपनी बेइज्जती हो जायगी । लोभ हो जायगा ।
लोभ, क्रोध और कामके कारण नरकोंमें जाना हो जायगा । क्योंकि अस्वाभाविकमें स्वाभाविक
स्थिति कर ली । जो चीज स्वाभाविक होगी, वह ही रहेगी । अस्वाभाविक रहेगी कैसे ?
अस्वाभाविकको स्वाभाविक मानकर जो गलती की है,
उसका दण्ड जरूर भोगना पड़ेगा । वह टलेगा नहीं । इस वास्ते अस्वाभाविकको
स्वाभाविक माने कि स्वाभाविकको स्वाभाविक माने ?
बोलो । इसमें शंका हो तो बोलो ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
|